Monday, June 9, 2008

सोनिया की गैस खत्म, राहुल ने व्रत रखा...

चूंकि यह सपना है इसलिए इसके चरित्र और पात्र काल्पनिक हैं. लेकिन संयोग या कुयोग से अगर इन नामों से मिलते-जुलते लोग आपकी नजर में आएं तो उसे महासंयोग से अधिक न माना जाए।

कल रात मैं नींद पूरी नहीं कर सका. सपने में सोनिया आ गई थीं. और, सपना भी ऐसा डरावना कि पूछो मत...

सोनिया अम्मा राहुल भैया से पूछ रही थीं कि तुम्हारे पास कुछ पैसा है. राहुल ने पूछा क्यों, बोलीं गैस खत्म हो गई है. राहुल बोले, नहीं पैसा तो नहीं है. सोनिया ने फिर पूछा, इस महीने जो वेतन मिला था, क्या हुआ. राहुल बोले, दोस्तों के साथ उड़ीसा के दलित इलाके में पिकनिक मनाने गया था. काफिले में गाड़ियां ज्यादा थी, कई टीवी वाले भी थे, सबकी टंकी फुल करानी पड़ी. रेस्तरां में खाने-पीने का खर्च बढ़ गया. राहुल बोले, मनमोहन या मुरली को कहते हैं, गैस सिलेंडर भिजवा देंगे. सोनिया बोलीं, नहीं. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे. राहुल बोले, देश में लोग ऐसे ही चल रहे हैं, कोई कुछ नहीं बोलेगा. इस तरह की उधारी तो आम आदमी के लिए आम बात है. वाद-विवाद के बाद तय हुआ कि प्रियंका दीदी की ससुराल से ही गैस सिलेंडर मंगवा ली जाए. दीदी व्यापारी परिवार में गई हैं सो वहां कोई दिक्कत-सिक्कत है नहीं।

राहुल भैया ने प्रियंका दीदी के घर फोन लगाया. पता चला कि फोन की लाइन कट गई है. जेब में पैसे थे नहीं तो राहुल भैया खुद साइकिल लेकर निकले प्रियंका दीदी के घर. वहां पहुंचकर पूछे कि फोन को क्या हो गया. दीदी ने बताया कि बीएसएनएल वालों का चार्ज महंगा है और बिल बहुत आ गया था तो हमने कटवा लिया. अब मोबाइल ले लिए हैं जिसमें इनकमिंग आने पर पैसा बढ़ जाता है. राहुल भैया ने कहा कि ये बीएसएनएल वाले कॉल दर सस्ती क्यों नहीं करते, जब कम रेट पर अंबानी की कंपनी मुनाफा कमा सकती है तो ये सरकारी कंपनी क्यों महंगाई बनाए हुए हैं. दीदी बोलीं, यही तो.... क्योंकि यदि बीएसएनएल सस्ता हो गया तो लोग हच, एयरटेल, रिलायंस क्यों लेंगे और जब ये मुनाफा नहीं कमाएंगे तो चंदा कैसे देंगे।

खैर, चाय-पानी के बाद जल्दी ही राहुल काम की बात पर आ गए. दीदी को बताए कि घर पर गैस खत्म हो गई है, मां ने सिलेंडर मांगा है. इस महीने की तनख्वाह मिलने पर गैस लौटा दूंगा. दीदी ने कहा, मेरे घर भी एक ही सिलेंडर है. पहले दो-तीन भरकर रखती थी लेकिन अब साग-सब्जी, चावल-दाल, तेल-घी सब महंगा हो गया है तो इतने पैसे नहीं बचते कि स्टॉक रखा जाए. बेचारे राहुल खाली हाथ घर लौट आए. मां को हाल सुनाया. सोनिया ने कहा, ऐसा करो कि तुम मेरे दफ्तर की गैस ले आओ, कहना हमारी खत्म हो गई है. वहाँ गए तो पता चला कि महंगाई से परेशान लोगों का एक झुंड आया था जो गैस सिलेंडर लूटकर ले गया।

साइकिल चला-चलाकर थक गए राहुल घर लौटे और मां को हाल बताया. सोनिया ने शिवराज को फोन लगाया और कहा कि उनके दफ्तर से लूटे गए गैस सिलेंडर को खोजा जाए. शिवराज बोले, पता कर रहा हूं लेकिन जहां तक मेरी खबर है, इसमें पड़ोसियों का हाथ होने के संकेत मिले हैं लेकिन अभी यह पूरी तरह नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे पड़ोसी से आपके संबंधों पर असर पड़ सकता है।

सोनिया भी परेशान हो गईं. झल्लाहट में उन्होंने रेसकोर्स फोन लगाया. पूछा इतनी महंगाई कैसे बढ़ गई है. मनमोहन बोले, चिदंबरम से पूछिए. चिदंबरम से पूछ गया, वो बोले, मनमोहन से पूछिए. सोनिया बोलीं, अरे आम आदमी तो मुझसे पूछेंगे न. तुम तो खास आदमी के सवालों के जवाब देने के लिए हो।

अब राहुल परेशान. भूख बढ़ती जा रही थी, साइकिल चलाने से कमजोरी कुछ ज्यादा ही हो गई थी. मां से बोले, कुछ खाना दो. सोनिया बोलीं, गैस खत्म है तो कुछ बना नहीं है. अचानक सोनिया की आंखों में चमक आ गई, राहुल से बोलीं कि आज मंगलवार है तो तुम ऐसा करो कि मंगल का व्रत रख लो. शाम तक कुछ इंतजाम हो जाएगा. इस बीच मैं राजीव से कह देती हूं कि वो खबर फैला दे कि राहुल बाबा ने मंगल व्रत रखा है ताकि देश में महंगाई खत्म हो और आम आदमी को राहत मिले. राहुल ने कहा, इसे खबर बनाने की क्या जरूरत है. सोनिया बोलीं, इससे तुम दलितों के बाद हिंदुओं के बीच भी हृदय सम्राट बन जाओगे.....

अब इसके बाद तो चमक राहुल की आंखों में थी. भूख का दुख गायब, गैस की चिंता खत्म....................

आगे भी कुछ दिखता लेकिन मेरी अम्मा ने जगा दिया. गैस खत्म हो गई थी। अब उधारी-जुगाड़ी की बारी मेरी थी. लेकिन मंगल का व्रत रखने का सपनैली कांग्रेसमाता का आइडिया मेरी भी आँखों में कौंध रहा था और इससे छलक रही मेरी खुशी का राज जाने बगैर मेरी अम्मा मुझे बावला घोषित कर चुकी थी।

यह एक बावले का बावलापन था या कांग्रेसमाता के आइडिये का दिवालियापन, तय करने में वक्त लगेगा.

मोह तो अब सपनों से भी टूट गया... सच ही कहा है.. सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना... उधारी-जुगाड़ी के सारे प्रयास विफल हो चुके थे. मन में पाश की तरह की कविता हो रही थी.. अम्मा, कितना मुश्किल है बिना गैस के घर लौट कर आना...

जनपथ देवी की जय...

Wednesday, May 21, 2008

चैनलों के दारोगा और आरुषि-हेमराज हत्याकांड...

जयपुर धमाके की पहली ही रात अपनी मेधा से पूरे देश और बाकी दुनिया की आंखें चौंधिया चुके हिंदी चैनलों के पत्रकारों ने उत्तर प्रदेश के नोएडा में एक डॉक्टर परिवार की बेटी और उसके नौकर की हत्या की तहकीकात की रिपोर्टिंग से तो मंत्रमुग्ध ही कर दिया.

 

जयपुर में धमाके के कुछ ही घंटों के अंदर हरेक हिंदी चैनल हूजी-हूजी, हूजी-हूजी की रट लगाने में जुट चुका था. आधार क्या था, यह जानना और भी दिलचस्प है. मसलन वे बता रहे थे कि चूंकि ये धमाके मंगलवार को किए गए हैं और इससे पहले जिन भी धमाकों में हूजी का नाम आया था, वो भी मंगलवार के ही दिन किए गए थे, इसलिए जयपुर के धमाके में भी हूजी का ही हाथ है.

 

बस हो गई तफ्तीश, जांच खत्म. नतीजा सामने है.

 

लेकिन सच यह है कि अभी तक सरकार और दूसरी खुफिया एजेंसियां भी तय नहीं कर पाई हैं कि ये धमाके सचमुच हूजी की ही करतूत है. ऐसा नहीं है कि हूजी ऐसा नहीं कर सकता लेकिन ये कहने और बताने की इतनी जल्दबाजी इन पत्रकारों को क्यों है.

 

इन पत्रकारों ने बाद में ये बताया कि जिन साइकिलों को धमाके में इस्तेमाल किया गया, उसे बेचने वाले दुकानदारों ने बताया कि खरीदार बांग्ला बोल रहे थे. चूंकि हूजी का गठन बांग्लादेश में हुआ और वहां से ही उसे ज्यादातर खुराक और ताकत मिलती है और बांग्लादेश में भी लोग जमकर बांग्ला बोलते हैं तो ये पक्का हो गया कि धमाके हूजी ने ही किया.

 

ये भी बताया कि एक के बाद एक धमाके करने का चस्का सिर्फ हूजी को ही है. इसलिए जयपुर में सात धमाके करने के पीछे हूजी ही है.
 
लेकिन क्या दूसरे आतंकवादी संगठनों को एक के बाद एक धमाके करने की मनाही है, उन्हें बांग्ला बोलने वालों को अपने गिरोह में शामिल करने से मना कर दिया गया है और उन्हें मंगलवार को छोड़कर ही किसी दिन भी धमाके करने कहा गया है. जिस देश में ऐसे होनहार और समझदार पत्रकार हों, वहां किसी सुरक्षा एजेंसी और जांच एजेंसी की क्या जरूरत है.

 

देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के बारे में धमाके की खबर के साथ ही लिखा कि इस तरह की घटना होने पर टीवी चैनलों के पत्रकारों के पास बस वे अकेली पसंद होते हैं. टीवी पत्रकारों को यकीन हो गया है कि सरकार में वही एक आदमी हैं जो फौरी तौर पर धमाके के स्वरूप और उसके पीछे छुपी ताकतों को बिना किसी लाग-लपेट के उगल देंगे. अलबत्ता, कभी-कभी तो मंत्रीजी वह भी बता देते हैं जो सुरक्षा या खुफिया एजेंसियों को भी तब तक नहीं पता होता है.

 

इस मायने में इस बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान काफी संतुलित रहा. जयपुर धमाकों की अब तक की जांच के आधार पर राज्य या केंद्र की जांच एजेंसियां किसी संगठन या किसी सरगना का नाम लेने की हालत में नहीं हैं. गिरफ्तारी वगैरह तो दूर की बात है. मनमोहन सिंह ने हूजी या ऐसे किसी भी संगठन को निशाना बनाते हुए कहा कि ये वो ताकतें हैं जो पाकिस्तान के साथ सामान्य हो रहे भारतीय संबंधों में रोड़ा अटकाना चाहती हैं.

 

अब बात करते हैं नोएडा के आरुषि और हेमराज हत्याकांड की...

 

पहले ही दिन पत्रकारों ने पुलिस वालों के कहने पर दुनिया को बता दिया कि डॉक्टर राजेश तलवार और उनकी पत्नी डॉक्टर नुपूर तलवार जब रात में सो रहे थे तो उसी दौरान उनके घरेलू नौकर हेमराज ने आरुषि की हत्या कर दी और फरार हो गया. अगली सुबह नौकरी पूरी कर नागरिक जीवन बिता रहे एक पूर्व डीएसपी से पहले आखिर कोई रिपोर्टर उन सीढ़ियों तक क्यों नहीं पहुंच पाया जिसे चढ़कर केके गौतम साहब ने आरुषि के संदिग्ध हत्यारे की लाश ही सामने ला दी.

 

चूंकि मैंने भी कुछ दिनों तक बिहार में दैनिक जागरण की नौकरी के दौरान एक ब्यूरो कार्यालय में पांच-छह जिलों की क्राइम बीट देखी है इसलिए हत्या, बलात्कार, लूट, डकैती और ऐसे ही कई मामलों को नजदीक से देखने और समझने का थोड़ा-बहुत मौका मिला है. उन दिनों और वहां के पत्रकारों की लिखी खबरों को देखता हूं तो लगता है कि दिल्ली के ज्यादातर क्राइम रिपोर्टर पुलिस प्रवक्ता के तौर पर ही काम करते हैं. उस अनुभव के आधार पर यह लगता है कि चैनलों और अखबारों को भी अब अपने पत्रकारों के प्रवक्ता बनने से कोई एतराज या परहेज नहीं है.

 

बिहार में आम तौर पर कोई क्राइम रिपोर्टर ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी हत्या की खबर करने गया हो और पुलिस वाले के कहे-सुने को ही लिख डाले. वह खुद भी चलता-फिरता है, कुछ सवाल करता है, कुछ जवाब तलाशता है. कम से कम जहां खून हुआ हो, वहां के चप्पे-चप्पे को तो देख ही लेता है. जांच अधिकारी बनकर नहीं तो कम से कम दर्शक बनकर ही.  नोएडा में पत्रकार सिर्फ आरुषि के बेडरूम से ही क्यों लौट गए.

 

दूसरी बात, चूंकि हत्या लड़की की हुई थी तो कई पत्रकारों ने संदेह जता दिया कि हत्या से पहले आरुषि के साथ जबर्दस्ती की गई थी. जबकि आम तौर पर हत्या के बाद भी लड़की के शरीर पर और आसपास बलात्कार के निशान ऊपरी तौर ही मिल जाते हैं. किसी पत्रकार ने ऐसे किसी सबूत का हवाला नहीं दिया कि हत्या से पहले बलात्कार किया गया, ऐसा उन्हें क्यों लगता है. हो सकता है, उसका मुंह बंद करने से पहले हत्यारों ने मुंह काला किया हो, लेकिन इसका कोई सबूत तो दिखेगा. अगर पीड़िता का शरीर सामने हो तो ये अपराध आंखों से छुप नहीं सकते.

 

तीसरी बात, हत्या इतनी निर्ममता से की गई कि लगता है कातिल बहुत ही सनकी किस्म का था. अखबारों से मालूम हुआ कि बच्ची के शरीर पर चाकुओं के कई निशान थे और सबसे गहरा जख्म गले पर था. इसका एक मतलब तो यह है ही कि लड़की के गले पर हमले से पहले ही शरीर पर चाकू चलाए गए क्योंकि गले पर गहरे हमले के बाद आगे हमले की कोई जरूरत नहीं रह जाती थी. थोड़ा विस्तार से बात करें तो अगर गले पर चाकू चलने से पहले आरुषि ने शरीर के किसी भी हिस्से पर हमला झेला तो वह जग चुकी थी, वो चीखी भी होगी लेकिन पास के कमरे में सो रहे उसके मां-बाप तक उसकी आवाज क्यों नहीं पहुंच सकी, ये मेरी समझ से बाहर है.

 

निश्चित रूप से पुलिस वालों को भी यह सवाल परेशान कर रहा होगा इसलिए उसके मां-बाप और दूसरे रिश्तेदारों से भी पूछताछ हो रही है. कुछ चैनलों पर दिखा कि राजेश और नुपूर के बयान में अंतर या यूं कहें कि विरोधाभास है. ऐसा है तो साफ है कि दोनों पूरा सच नहीं बोल रहे हैं और अगर झूठ बोल रहे हैं तो दोनों में तालमेल की कमी है जो पुलिस के सामने जाहिर हो जा रही है. लेकिन मां-बाप को संदिग्ध हत्यारे की तरह पेश करने से पहले पत्रकारों को बहुत ठोस और तार्किक सबूतों का इंतजार कर लेना चाहिए था क्योंकि जो उनकी छवि का जो नुकसान चैनल वाले कर जाएंगे, उसकी भरपाई करने वो दोबारा सेक्टर 25 के जलवायु विहार कभी नहीं जाएंगे.

 

चौथी बात, सोमवार को सारा दिन चैनल वाले कुछ पुलिस अधिकारियों के हवाले से बताते रहे कि डॉक्टर के पुराने नौकर विष्णु को हिरासत में ले लिया गया है. इसके साथ ही सीधे-सीधे शब्दों में कुछ कहे बिना यह भी बताने की कोशिश की गई कि हत्या इसी ने की हो सकती है. सकने के नाम पर तो कुछ भी हो सकता है. लेकिन चैनल वाले इसके साथ यह भी लगातार बता रहे थे कि हत्या जिस समय हुई, उस समय विष्णु नेपाल में था. मतलब, जिसे पुलिस ने हत्या के मामले में पूछताछ के लिए हिरासत में लिया, वह वारदात के वक्त नेपाल में था और ऐसे में कम से कम वह खूनी तो नहीं ही हो सकता. चैनल वाले एक साथ दोनों विरोधाभासी खबरें चला रहे थे. सोचने-समझने की कोई जरूरत चैनल वाले महसूस नहीं करते क्या. कुछ तो सवाल उनके मन में पैदा होने चाहिए कि इस खबर को क्यों चलाएं और कैसे चलाएं. पूछताछ तो किसी से भी की जा सकती है. पुलिस को जहां भी रोशनी नजर आती है, वह वहां तक जाती है लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि जिसे भी हिरासत में लिया जाए या जिससे भी पूछताछ की जाए, वह हत्यारा या षड्यंत्रकर्ता ही हो.
 
पांचवीं बात, नौकर हेमराज का शव मिलने के बाद भी आशंका जताने का दौर जारी रहा. कोई कह रहा था कि हेमराज ने जिसके साथ मिलकर आरुषि को मारा और उसी से उसे मार दिया. कोई कह रहा था कि हेमराज की हत्या होते आरुषि ने देख ली इसलिए उसकी भी हत्या कर दी गई. हरेक पत्रकार तथ्यों का अपनी तरह से विश्लेषण कर रहा था.
 
ये कोई चुनाव नतीजों के विश्लेषण जैसा काम नहीं है कि योगेंद्र यादव या आशुतोष की तरह पत्रकार आंकड़े लेकर बैठ जाएं और बांचते रहें कि ऐसा हुआ इसलिए ऐसा हुआ, ऐसा नहीं हुआ इसलिए ऐसा हुआ और ऐसा हो गया होता तो ऐसा होता. ये खून का मामला है जिसमें सिर्फ एक ही बात सच होगी. उस सच के सामने आने से पहले इतने पूर्वानुमान की जरूरत नहीं है, वो भी इस तरह के पूर्वानुमान की जो अटकल और गप्प से ऊपर के दर्जे की है ही नहीं.
 
ये तो वही बात है कि सारी अटकलें लगा दो, कोई न कोई तो नतीजे के पास होगी. सबसे बड़ी बात ये है कि पत्रकारों ने इस मामले में इस तरह से पुलिस पर दबाव बना रखा है कि उन्हें हत्यारे का नाम एक हफ्ते में ही चाहिए जबकि इस तरह के उलझे मामलों की जांच एक महीने में भी पूरी हो जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है. ऐसे में पुलिस पर इस बात का दबाव ज्यादा है कि वह किसी को भी एक ठोस कहानी के साथ सामने लाकर पटक दे कि लो, ले जाओ, दिखाओ, बेचो, छापो, यही है हत्यारा.
 
और भी कई ऐसी उटपटांग बातें इस हत्याकांड को लेकर पत्रकार लिखते और बकते नजर आए जिन पर गुस्सा आता था कि इन बेवकूफों को क्यों और कैसे पत्रकार बना दिया गया.  असल में, दिल्ली में पत्रकारों की जो बहुत बड़ी फौज है, वह पब्लिक स्कूलों में पढ़ी है और ऐसे समाज में पली-बढ़ी है जिसे ये पता नहीं होता कि उसका पड़ोसी कौन है. वहां खून-वून भी कभी-कभार ही होते हैं. किसी संगीन अपराध की बारीक जांच करने के लिए अनिवार्य तो नहीं लेकिन ये बहुत जरूरी है कि जांच करने वाला थोड़ा सामाजिक और थोड़ा असामाजिक हो. सामाजिक संगत होने से उसे ये आभास होगा कि खून किन-किन कारणों से हो सकते हैं और असामाजिक होने का असर ये होगा कि उसे यह भी पता होगा कि खून करने वाला यह काम क्यों, कब और कैसे करता है.
 
और किसी के पास हों न हों, कम से कम क्राइम रिपोर्टरों के पास तो दोनों तरह की संगति के पर्याप्त मौके होते हैं.

Saturday, May 17, 2008

बॉलीवुड के कमीशन एजेंट हैं ये समाचार चैनल...

पता नहीं हर सप्ताह फ्लॉप और बकवास फिल्में देखने के लिए लोगों को उकसाने के एवज में ये सारे समाचार चैनल कितने पैसे लेते हैं. सोमवार से जो ये गाना गाना शुरू करते हैं तो शुक्रवार को फिल्म के रिलीज होने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते हैं.

 

इन चैनलों के चक्कर में मैंने इतनी सारी सिरदर्द फिल्में देख ली हैं कि हजारों रुपए की बद्दुआ उनका पीछा नहीं छोड़ेगी. पिछले शनिवार को टशन देखने चला गया था, टेंशन हो गया. जब आदित्य चोपड़ा के निर्देशक को तंबाकू खाने का तरीका नहीं मालूम था तो अनिल कपूर को तंबाकू खिलाने की जरूरत ही क्या थी?

 

और पुराने जमाने में सफल फिल्में बनाने वाली भी ऐसी चाट और सिरखाऊ फिल्में पेश करे हैं कि अब नाम पर से भरोसा ही उठ गया है. यश चोपड़ा साहब की झूम बराबर झूम, नील एंड निक्की हो या यश जौहर की कंपनी की कभी अलविदा न कहना.

 

अमिताभ बच्चन का फिल्म में होना कहीं फिल्म के हिट होने की गारंटी है क्या.

 

खैर, बॉलीवुड के इस दोगलेपन का नतीजा यह निकला है कि अब कोई फिल्म दो सप्ताह से ज्यादा नहीं टिक पाती. दर्शक दो दिनों में फिल्मों का हिसाब कर लेते हैं. वो तो भला हो मल्टीप्लेक्सों का कि कुछ हजार लोग भी फिल्म देख लें तो फिल्में घाटे से उबर जाती हैं.

 

दूसरा असर यह हुआ है कि पश्चिमी रंग-ढंग में अंग्रेजी-हिंदी मिक्स करके गाना और फिल्म बनाने के चक्कर में अंग्रेजीदाँ लोगों ने इतने नर्क बोए कि अब बिहार, यूपी जैसे बड़े हिंदी बाजार में अधिकांश सिनेमा घरों में भोजपुरी फिल्में चलती हैं.

 

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि देश के तमाम बड़े-बड़े पत्रकारों ने जिस तरह से अंग्रेजी में लिखकर हिंदी अखबारों का पन्ना भड़ा है और अब भी भड़ रहे हैं, ये फिल्में भी उसी तरह हिंदी के बाजार से अंग्रेजी का घर भर रही हैं.

 

बेसिर-पैर की कहानी, पारिवारिक मूल्यों को तोड़ती कहानी, युवाओं को ललचाती कहानी...गांवों को नहीं लुभा पा रही हैं. गाँव के लोगों की नजर में पथभ्रष्ट और चियरलीडर्स को देखकर फूले जा रहे मध्यवर्ग को साधने के चक्कर में साधारण लोग क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को हिट करा रहे हैं.

 

जबकि कोई भी भोजपुरी फिल्म बिहार-यूपी में पाँच सप्ताह से ज्यादा चल जाती है क्योंकि उसे देखकर लोगों को लगता है कि ये कुछ आसपास की कहानी है.

 

बॉलीवुड की फिल्में जब मैंने देखनी शुरू की थी तब हिट होने के लिए फिल्म का कम से कम पचास दिन चलना जरूरी माना जाता था. सौ दिन चले बिना सुपरहिट होना संभव ही नहीं था.

 

लेकिन ये चैनल वाले हर सप्ताह बताते हैं कि कैटरीना कैफ की ये, सलमान खान की वो, शाहरुख की फलाँ, अमिताभ की ढेकानाँ फिल्म सुपरहिट रही. काहे कि हिट भैया. तुमने गाया नहीं होता तो औकात पता चल जाती. कमीशन खाए चैनलों के प्रचार से दिग्भ्रमित लोग सिनेमा हॉल से जब तक लौटते हैं, फिल्म हिट हो जाती है.

 

ये हिंदी की खाने वाले आखिर गा किसकी रहे हैं. हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक, सब के सब अपनी फिल्मों के प्रचार में, भले ही हिंदी चैनल पर क्यों न हों, अंग्रेजी बोलकर कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका के दर्शकों को लुभा रहे हैं. कुछ जादू दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों पर भी चल जाता है लेकिन गांव और छोटे शहर धीरे-धीरे इनकी पकड़ से बाहर निकल रहे हैं.

 

सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी बोलने, सुनने और हिंदी को जीने वाली बड़ी आबादी बॉलीवुड फिल्मों को भी हॉलीवुड की तरह देखने लगेगी.

 

गांवों में हॉलीवुड की फिल्मों को जिस रूप में देखा जाता है, वो तो आप समझते ही होंगे...

Tuesday, April 1, 2008

जियो भूटिया, जियो...काली पट्टी लगाकर दौड़ें आमिर...

तिब्बत और उसकी लड़ाई लड़ रहे लोगों के लिए दो अच्छी ख़बरें हैं. एक तो भारतीय फ़ुटबॉल टीम के कप्तान बाइचुंग भूटिया ने ओलंपिक मशाल को लेकर दौड़ने से मना कर दिया है.
 
और, दूसरी कि अभिनेता आमिर ख़ान ने इस मसले पर चीनी रवैए की आलोचना की है. हालांकि वे ओलंपिक को चीन का मामला नहीं मानते हैं इसलिए मशाल के साथ दौड़ेंगे. आमिर से अपील है कि वे दौड़ में हिस्सा लें लेकिन अगर काली पट्टी बांधकर ऐसा करें तो वे भारतीय समाज की ओर से चीन के लिए कुछ संदेश छोड़ सकेंगे.
 
ओलंपिक मशाल रिले 17 अप्रैल को नई दिल्ली में प्रस्तावित है. भारत सरकार ने मशाला की यात्रा के दौरान किसी तरह का तिब्बती विरोध नजर नहीं आने देने का भरोसा चीन को दिलाया है.
 
भूटिया और आमिर से पहले देश के पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडीस ने जो कहा, वे पहले से कहते रहे हैं लेकिन जब उन बातों पर राजग की सरकार ने बहुत कान नहीं दिया तो अब गठबंधन की अगुआ भाजपा से किसी सकारात्मक प्रतिक्रिया की उम्मीद बेमानी है.
 
जियो भूटिया....जियो....

तिब्बती काम और भारतीय कारनामे...

सुरक्षा परिषद में जाकर क्या कर लेगा इस तरह का भारत...
 
तिब्बत की राजधानी ल्हासा में कुछ हफ्तों से तेज हुए चीनी दमन के बावजूद तिब्बतियों का हौसला न तो टूट रहा है और न ही दुनिया के दूसरे देशों में चीन विरोधी प्रदर्शन करने का उनका साहस जवाब दे रहा है. हमने भी इसी जोश और ताकत से आजादी हासिल की होगी.

 

अलबत्ता, भारत सरकार के विवेक ने जवाब दे दिया है. महाशक्ति, सुरक्षा परिषद का सदस्य जैसे न जाने कितने सपने हमने संजो रखे हैं. लेकिन लोकतंत्र की मांग कर रहे एक विस्थापित कौम के लोकतांत्रिक आंदोलन को टुकुर-टुकुर देखने वाला देश आखिर सुरक्षा परिषद में पहुंच कर दुनिया को क्या दे पाएगा?
 
और, ऐसी कमजोर विदेश नीति वाली सरकारों का देश सुरक्षा परिषद में पहुंच भी जाए तो चीन और अमेरिका की मनामनियां रोकेगा कौन? भारत के रूप में तो शायद उन्हें अपनी मनमानी पर एक और वोटर मिल जाएगा.

 

पाकिस्तान को ही लीजिए. वहां के लोग अमेरिका के बारे में अच्छी राय नहीं रखते हैं लेकिन सरकारें अमेरिका से अच्छे संबंध के नाम पर बहुत कुछ कुर्बान करती रही हैं. भारतीय मामला पाकिस्तान की तरह का तो नहीं है लेकिन हम पूरी तरह से ब्रिटिश भी नहीं है.

 

भारत ने तिब्बतियों को राजनीतिक शरणार्थी का दर्जा दे रखा है और भारत में उनके लिए सहानुभूति है. इसलिए स्वाभाविक है जब चीनी जवान ल्हासा में गोली-लाठी चला रहे हैं तो कुछ न कुछ दर्द तो यहां के लोगों को भी हो ही रहा है. सरकार में बैठे लोगों को भी चीनी कार्रवाई नहीं भा रही है लेकिन उनका कुछ न बोलना हम जैसे लोगों को सुहा नहीं रहा है.

 

दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बत से भागे लोगों के संघर्ष का पांच दशक पूरा होने ही वाला है. चीन में मीडिया कितनी मुक्त है, यह तो सबको पता है. बेचारे तिब्बतियों ने सोचा कि बीजिंग में ओलंपिक पर जब दुनिया नजर गड़ाएगी तो इस दौरान होने वाले आंदोलन पर भी उनकी नजर जाएगी. यही सोच है जिसके साथ पिछले कुछ दिनों से दुनिया भर में तिब्बती प्रदर्शन कर रहे हैं.

 

अपने लिए आजादी मांगना, स्वायत्तता मांगना, तिब्बत के मामलों में दखलअंदाजी का अधिकार मांगना, अपनी संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ना उनका मक़सद है. और तिब्बती इसे कर रहे हैं तो यह उनका काम है.
 
चीन जो कर रहा है, उसने कोई पहली बार नहीं किया है कि दुनिया चौंक जाए. ये उसकी आदत है और फितरत भी. तिब्बत ही क्या, उसके दमन की कहानी दूसरे चीनी प्रांतों में भी है. लेकिन वहां के पत्रकारों को दुनिया के लोगों को यह बात बताने की इजाजत नहीं है. चीन जो कारनामे कर रहा है, वह न तो पहली बार दिख रहा है और न आखिरी बार.
 
भारत जैसा पड़ोसी और अमेरिका जैसा व्यापारिक साझीदार जिसके साथ हो, वह ऐसे कारनामे बार-बार न दुहराए तो क्या करे. चीन को पश्चिमी देश नसीहत से आगे कुछ नहीं दे सकते. महाबलियों के पास भी इतना ही साहस है कि वे ईरान और सीरिया जैसे छोटे देशों को ही धमिकयां दे सकें.
 
अपने देश के वामपंथियों को देखिए जो ईरान, इराक और न जाने किन-किन देशों की समस्या को लेकर सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं और सड़कों पर हंगामा करते हैं लेकिन देश की सीमा से लगे तिब्बत में आजादी या स्वायत्तता की लड़ाई उन्हें नजर ही नहीं आती है.
 
भला हो कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी को जनता ने अभी तक सरकार बनाने का मौका नहीं दिया है नहीं तो ये लोग कब का दलाई लामा को अपने समर्थकों के साथ भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर देते. वैसे ही, जैसे तस्लीमा को किया. ये कुछ नहीं करते, लोग खुद समझ जाते हैं कि उनके लिए क्या करना बेहतर होगा.
 
भारत ने देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन और तिब्बत मार्च पर निकले शरणार्थियों को गिरफ्तार किया. आगे बढ़ने से रोका. जब दुनिया भर के देश चीन से धैर्य से काम लेने और दलाई लामा से वार्ता करने की अपील कर रहे थे तब भारत हालात पर "गहरी नजर" रखे बैठा था.
 
चीनी दूतावास में तिब्बतियों के घुसने पर आधी रात बीजिंग के विदेश मंत्रालय में भारतीय राजदूत को बुलाने के बाद दलाई लामा से भारतीय उपराष्ट्रपति की मुलाकात रद्द कर दी गई. और, उसके एक सप्ताह बाद वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की बीजिंग यात्रा टालकर यह संकेत देने की कोशिश की जा रही है कि वह भारतीय राजदूत निरूपमा राव को आधी रात बुलाने से नाखुश है.
 
ये कैसा ड्रामा है सरकार चलाने वालों. पहले तो हामिद अंसारी को दलाई लामा से मिलने से रोक दिया और बाद में कमलनाथ को रोककर साबित करना चाहते हो कि हम चीन से नाराज भी हो सकते हैं. भारत के पास इतना साहस है लेकिन उसकी सरकारों के पास नहीं. हामिद अंसारी से दलाई लामा की मुलाकात का कोई राजनीतिक महत्व मुझे तो नजर नहीं आता. चीन के लिए भले यह कूटनीतिक प्रतिष्ठा का सवाल रहा होगा.
 
तिब्बती भारत से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते मुंह खोलने की अपील कर रहे हैं लेकिन सरकार चुप है. पता नहीं चीन किन संबंधों की दुहाई देकर भारत को दबाव में लेने में कामयाब हो जा रहा है. उससे हम एक बार लड़ चुके हैं. सीमा विवाद इतने गहरे हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री को अपने देश में ही यात्रा करने पर कूटनीतिक गर्मी का अहसास करा दिया जाता है. हमारे छोटे-बड़े उद्योंगों के असली उत्पादों की चीनी नकलचियों ने कमर तोड़कर रख दी है.
 
किस मधुर संबंध का लोभ और संबंधों में कौन से सुधार का मोह है जो चीन से भारत यह नहीं कह सकता कि दलाई लामा की बात सुनो. और अगर यह कहने से चीन नाराज होता है तो लोकतंत्र की रोशनी फैलाने वाले भारत को ऐसे किसी मित्र की जरूरत नहीं होनी चाहिए. पड़ोस में हैं, औपचारिक व्यापार करें, आएं-जाएं...
 
तिब्बतियों के आंदोलन को नैतिक समर्थन देने वाला कोई देश चीन का दुश्मन नहीं बन गया है और न ही चीन ने उस पर हमला बोल दिया है. हमारे साथ ही कोई दुर्घटना होगी, यह सिर्फ मनमोहन सिंह की आशंका है. हमारा तो यकीन है कि भारत जब लोकतंत्र की बात अंग्रेजों से कर सकता है तो चीन से भी वह तिब्बती स्वायत्तता की बात कर सकता है. पंचशील समझौते की बेड़ियों ने जब चीनी को हमला करने से नहीं रोका तो हम कब तक तिब्बत को उसका घरेलू मामला मानते रहेंगे.

Wednesday, March 26, 2008

दिल्ली और वॉकिंग डिस्टेंस....

दिल्ली. नई दिल्ली तो कागज पर ही लिखते हैं. मेरे शहर से बड़ी संख्या में यहां लोग आते-जाते रहते हैं. कुछ काम करने आते हैं, कुछ नेता से काम कराने, कुछ इलाज कराने.... और मेरी तरह के कुछ लोग पढ़ने-लिखने के साथ ही यहीं बसने आ जाते हैं.
 
दिल्ली में बसने के लिए 27 जुलाई, 2005 को एक बैग में अपने सारे जरूरी सामान के साथ चला था. इससे पहले भी दो-दो दिन के लिए दो बार दिल्ली आ चुका था.
 
बेगूसराय में दैनिक जागरण की पांच साल की रिपोर्टरी में मोटरसाइकिल पर ही चढ़े रहने की लत लग गई थी लेकिन उसे यह सोचकर वहीं छोड़ आया था कि दिल्ली में कौन सी हवाखोरी करनी है. घर पर बाइक रहेगी तो जब कभी जाना होगा, वहीं हवाखोरी कर लेंगे.
 
28 जुलाई को सुबह नौ बजे विक्रमशिला एक्सप्रेस से उतरकर ऑटो की मदद से कटवारियासराय पहुंचा. हिंदुस्तान अखबार के मेरे जिले के एजेंट ज्योति बाबू ने अपने भतीजे के पास जाने की सलाह दी थी ताकि ठीक-ठाक कमरा मिल जाए. एक महीने तक बिट्टू बाबू की मेजबानी का मजा लेने के बाद कमरा मिला. यह पहले भी मिल सकता था लेकिन जैसा मुझे चाहिए था, वैसा मिल नहीं पा रहा था. मसलन, ज्यादा सीढ़ी न चढ़नी पड़े, खिड़की हो, धूप भी आती हो, कुल मिलकार हवामहल जैसा हो. इतनी शर्तों पर खरा उतरने वाला कमरा दिल्ली में तुरंत नहीं मिल पाता.
 
पहली सीख यही रही.
 
एक अगस्त से आईआईएमसी में क्लास शुरू होने थे. मेरा जन्मदिन भी इसी तारीख को है. बड़ी मायूसी के साथ हिंदी पत्रकारिता विभाग के निदेशक प्रो. सुभाष धूलिया जी के आदेश पर (कुछ लेट से आने की अनुमति मांगने पर) दिल्ली आ गया था कि जन्मदिन यहीं मना लेना. पहले दिन जन्मदिन होने का ही सौभाग्य था कि आधे क्लास से चार घंटे में ही जान-पहचान हो गई. कैंटीन में गए और कह दिया कि जिन्हें जो भी पसंद है, खाएं. कुछ ने खाया, कुछ शर्मा गए. इसके बाद से तो खाने-खिलाने का जो चस्का लगा, वो अब छूटने से रहा. साल में दो-चार दफे दर्जनिया पार्टी न हो तो मजा ही नहीं आता.
 
अब बात दूसरी सीख की
 
दिल्ली पहुंचने से पहले यह बात किसी ने अनुभव के नाम पर भी बता दी होती तो मैं बिना बाइक के नहीं आता. क्लास शुरू हों इससे पहले कटवारियासराय से आईआईएमसी कैंपस का रास्ता वगैरह देख लेना जरूरी था. तो 31 जुलाई को नहा-धोकर निकल पड़े. कटवारियासराय स्टैंड पर एक सज्जन से पूछा कि आईआईएमसी किधर है और कितनी दूर है. उन्होंने सीधे हाथ-उल्टे हाथ के हिसाब से कुछ बताया और कहा कि वॉकिंग डिस्टेंस है.
 
चल पड़े, चलते रहे और जब तक चलते-चलते थक नहीं गए तब तक आईआईएमसी नजर नहीं आया. कुल मिलकार दो किलोमीटर से ज्यादा दूरी रही होगी. जी में आया कि उस आदमी को पकड़कर पीटूं जिसने दो किमी को भी वॉकिंग डिस्टेंस मान रखा है. लेकिन मैंने बाद के दिनों में पाया कि इतनी दूरी को यहां रहने वाले वॉकिंग डिस्टेंस बोलकर पैदल ही तय कर लेते हैं. फिर जितना जल्दी हो सका, मैंने अपनी बाइक दिल्ली मंगवा ली. तब से न तो किसी से वॉकिंग डिस्टेंस जानने की जरूरत हुई है और न पैदल चलने की.
 
लेकिन यह सवाल तो बनता ही है कि जब दिल्ली के लोग दो-तीन किलोमीटर वॉक ही करते हैं तो दौड़ते कितना होंगे ... क्या इसीलिए दिल्ली में हर साल कोई न कोई मैराथन होता रहता है ???

Saturday, March 8, 2008

और क्या कहें, राजधानी की सुनें...

ट्रेनों के लेट होने से खाने-पीने को तरस गए यात्री

पावर लाइन ट्रिप करने से करीब सौ ट्रेनों में सफर कर रहे यात्रियों पर बिजली गिर पड़ी. दिल्ली आ रही गाड़ियां सुबह से ही रेंग रही थीं. रेलमंत्री लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो 'सामाजिक न्याय' सा माहौल लग रहा था. क्या राजधानी, क्या विक्रमशिला और क्या आम्रपाली, सब आसपास, एक गति से, लय मिलाकर, एक के पीछे एक चल रही थीं.

रेल की बात कर रहे हैं तो उस ट्रेन की बात करते हैं जिसे पटरियों पर 'विशेषाधिकार' प्राप्त है. राजधानी एक्सप्रेस. गाड़ियों की लेटलतीफी में उस राजधानी का हाल सुनिए जो रेलमंत्री के सूबे (पटना) से दिल्ली आ रही थी. इसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन सुबह दस बजे के आसपास पहुंच जाना था लेकिन उस वक्त वह उत्तर प्रदेश के किसी वीरान इलाके में हिचकोले खा रही थी.

सेकेंड एसी के कोच ए-4 का नजारा. एक युवक ट्रेन अधीक्षक से बार-बार दिल्ली पहुंचने की स्थिति पूछ रहा था. जब दोपहर के एक बजे तो उसने वहा में गुरजते एक जहाज को देखकर कहा, 'लगता है मेरी फ्लाइट छूट गई.' इस नौजवान को अहमदाबाद जाना था.

बिहार में निजी क्षेत्र की शीर्ष डेयरी गंगा डेयरी के एमडी अखिलेश कुमार बार-बार स्टेट बैंक के एक महाप्रबंधक को फोन लगा रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन्हें शुक्रवार को महाप्रबंधन ने मिलने का समय दिया था. इस क्षेत्र में मिलने वाली सरकारी सहायता राशि के लंबे समय से लंबित भुगतान के लिए वे दिल्ली आए थे. अपराह्न दो बजे के बाद वे नई तारीख लेने की कोशिश करते दिखे.

भाजपा नेताओं की एक टीम अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिलने आ रही थी. विधान पार्षद गिरिराज सिंह, प्रदेश उपाध्यक्ष लालबाबू प्रसाद और महासचिव मंगल पांडेय लगातार राजनाथ के निजी कर्मचारियों से संपर्क बनाए थे. विधान परिषद की सीटों के लिए चुनाव के मद्देनजर ये दिल्ली आए हैं. अब राजनाथ इनसे शनिवार को मिलेंगे.

इसी तरह किसी का ऑफिस छूट गया, किसी की बैठक छूट गई. कुछ न कुछ तो हर किसी का छूटा.

ट्रेन अधीक्षक की खोज हुई. पता चला श्रीमान पैंट्रीकार में पूड़ी बना रहे हैं. उनसे पूछा तो कहा कि अलीगढ़ से पानी और खाना का सामान लेने के लिए आर्डर दिया गया है. शाम में पता चला कि पैंट्री के मैनेजर ने आर्डर रद्द करवा दिया. फिर शुरू हुई शिकायत पुस्तिका की खोज ताकि यात्री अपना गुस्सा दर्ज कर सकें.

यात्री सुविधाओं की बात करें तो दोपहर होते-होते खाना खत्म, पानी खत्म, चाय भी नहीं. हील-हुज्जत के बाद ढाई-तीन बजे के आसपास चावल और दाल दिया गया. दोनों को एक साथ मिला दें तो खिचड़ी भी शर्मा जाए. लोग इसे भी खा गए. भूख तो ऐसी ही होती है. लेकिन खाने के बाद पानी नहीं. मांगा तो भी नहीं दिए. पैसे दिए तो भी नहीं.
इस दौरान ट्रेन कितनी जगह रुकी, गिनती नहीं की जा सकती. पटरियों के आसपास से जैसी-तैसी चीजें खरीदकर लोगों ने भूख मिटाई लेकिन राजधानी वालों ने कुछ नहीं दिया. तारीफ कीजिए विक्रमशिला के पैंट्री स्टाफ की जो अपने यात्रियों के लिए एक खेत से आधा क्विंटल आलू खरीद लाया ताकि देरी से परेशान यात्री कुछ तो खा सकें.
साभारः- आज समाज, 8 मार्च, 2008

Thursday, February 21, 2008

मैडम सर से बड़ी होती हैं...

पापा भगवानपुर के बीडीओ ऑफिस में थे. मैं चौथी-पांचवीं में रहा होगा. घर पर ट्यूशन पढ़ाने एक गुरुजी आते थे. जहां तक याद है, नाम अर्जुन सर था.

 

घर पर करने के लिए दिए गए काम पूरे न करने या गलतियां करने पर वे मुठ्ठियां बंद करवाकर उंगलियों के जड़ पर बाहर से चोट करते थे.

 

हमारे सरकारी क्वार्टर से एक किलोमीटर की दूरी पर बलान नदी बहती थी और उसके पार एक गांव था, दामोदरपुर. सर वहीं के रहने वाले थे.

 

ट्यूशन के दौरान ही सर की शादी हुई. शादी के कुछ दिन बाद जब वे फिर से पढ़ाने आए तो एक दिन मुझे और मेरी बहन को अपने घर ले गए, मैडम से मिलवाने.

 

पहले साईकिल से नदी के घाट तक, वहां से नाव और नाव से उतरने के बाद फिर साईकिल से हम तीनों दामोदरपुर पहुंचे.

 

लड्डू खाए, दही खाई. दही के सामने सब बेकार. सारी चीजें सर ने ही लाकर परोसी. पानी भी.

 

 
 
आगे मेरी डायरी पर पढ़ें...

Sunday, February 17, 2008

अपने स्तर पर ईमानदार रहो...

सोचा था कि वेलेंटाइन डे के बाद अपनी निजी डायरी लिखने की शुरुआत करूंगा. बाबा वेलेंटाइन की जयंती बीत चुकी है. उस दिन मैंने अपने उन दो-चार मित्रों को शुभकामनाएं दी जिनके वेलेंटाइन हैं.

लोगों ने जब संदेश के बदले धन्यवाद कहा तो लगा कि बस उनके बारात से ही लौटा हूं. वैसे, इनमें कई की बारात जाना ही है.

जिन दोस्तों के झगड़े चल रहे हैं, उनको बधाई नहीं दी. क्या पता, संदेश जले पर नमक जैसा होता. झगड़े नियमित अंतराल पर होते रहते हैं. उम्मीद है कि जिनको इस साल बधाई नहीं दी, अगले साल उन्हीं को दे पाउंगा.

यह समझदारी पिछले साल ही आई है.

दिवाली पर बेगूसराय के लोगों को मैं पर्व की बधाई दे रहा था. मेरी बदनसीबी, जिन लोगों को मेरे संदेश मिल रहे थे वे सारे उस वक्त श्मशान घाट पर एक दाह संस्कार में थे. मुझे समय पर खबर मिली होती तो शायद मैं भी उस वक्त गंगा किनारे उन लोगों के साथ होता.

मेरे शहर के बड़े और ईमानदार वकील राम नरेश शर्मा जी की हत्या कर दी गई थी. बड़े अपराधियों के खिलाफ सरकार की ओर से वे कोर्ट में कई मुकदमे लड़ रहे थे. राजनीतिक जीवन में भी वे बड़े कद के ईमानदार लोग थे. समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे।

उनकी हत्या की जांच अब राज्य की अपराध अन्वेषण विभाग, सीआईडी कर रही है।

आगे पढ़ने के लिए क्लिक करें...

Wednesday, February 13, 2008

आडवाणी जी, आप बहुत अच्छे हैं...

श्रद्धेय आडवाणी जी
नमस्कार
 
देर से ही लेकिन उत्तर भारत के लोगों को मुंबई से धकियाने की धमकी देने वालों को आपने जिस तरह से हड़काया है, मेरा वोट आपने पक्का कर लिया है.
 
राज ठाकरे के बड़बोले बयानों के बाद आपकी चुप्पी के कारण उद्धव ठाकरे का मन भी मचलने लगा था लेकिन समय रहते आपके बयान से सब साफ हो गया है.
 
अब बाल ठाकरे साहब को गठबंधन में रहना है तो गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बातों का सम्मान तो करना ही होगा.
 
 
शुक्रिया...

Monday, February 4, 2008

बिहार के अनुभव लिखेंगी घुघूती जी...

घुघूती जी को मैंने एक पत्र लिखा था.  उनकी अनुमति से उसे नीचे छाप रहा हूँ.  उन्होंने
कहा है कि बिहार में बिताए अपने दिनों के बारे में कुछ साझा करेंगी.  मुझे
तो उन लेखों का इंतजार है,  आपको भी होगा....!
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नमस्कार

 

मेरी चिट्ठी पर आपने बधाई के साथ एक सवाल भी दर्ज किया था.
 
जवाब देने में काफी देर कर दी लेकिन मेरे ब्लॉग को देखने से भी आपको इस बात का अंदाजा लग गया होगा कि मैं शौकिया ब्लॉगर हूँ. जब फुर्सत होती है या कुछ अनपच होने लगता है, तभी लिखता हूँ, अचानक से. कई बार तो नौकरी और बाकी व्यस्तताओं के कारण योजना बनाकर भी नहीं लिख पाता.

 

वैसे, ब्लॉग पर लिखने वालों में सबसे ज्यादा किसी से प्रभावित हुआ हूँ तो निःसंदेह वो आप हैं. यह कोई ऐसी तारीफ नहीं है जो मैं बस आपको लिखने के लिए कर रहा हूँ.

 

कविताएँ मेरी समझ में नहीं आती. छायावादी कविताएँ तो मुझे पागलपन से भरी बातें लगती हैं. सीधा-सादा आदमी हूँ और सीधी बात ही करता और समझता हूँ.

 

आप मेरी माँ से भी ज्यादा उम्र की हैं फिर भी ये कहना चाहता हूँ कि शादी और पिताजी की बीमारी वाली आपकी कहानी बहुत प्रेरक लगी और यही वजह है कि मैंने रीतेश की डायरी नाम से एक दूसरा ब्लॉग बनाया है. इस पर आपकी नकल करना है. कोशिश रहेगी कि आपकी तरह ही ईमानदार रहकर लिख सकूँ.

 

आपने सवाल किया कि बिहार के लोग बिहार में कुछ कर नहीं पाते लेकिन बाहर वही लोग अच्छा करते हैं... आखिर क्यों...?

 

आपके सवाल में ही मेरा जवाब छुपा है.

 

कुछ करने का दायरा तो पहले ही बिहार में सीमित है.

 

मसलन, खेतीबाड़ी के अलावा कुछ छोटे-मोटे कारखाने हैं.

 

जो खान-खनिज था, विभाजन के साथ पड़ोसी प्रांत में चला गया. इसलिए इस राज्य में न तो लक्ष्मी नारायण मित्तल की दिलचस्पी है और न ही रतन टाटा की.

 

बाकी बची सरकारी नौकरी. लंबे समय तक तो नौकरी देने की कोशिश भी नहीं की गई. हाल में नीतीश कुमार ने कम खर्च में काम कराने की कॉरपोरेट संस्कृति से नाता जोड़ा है. पांच से छह हजार में बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षक बनाया गया है.

 

मध्य, प्राथमिक और उच्च विद्यालय में पढ़ाने वाले ये लोग उन शिक्षकों की जगह पर रखे गए हैं जो पद 15-20 हजार की पगार पाने वाले गुरुजी के रिटायर होने के बाद से खाली चल रहे थे.

 

केंद्र सरकार ने भी बेरोजगारों के गुस्से का गुबार निकालने के लिए सर्व शिक्षा अभियान चला रखा है. कम पैसे पर शिक्षक रखे जा रहे हैं. जो इससे समझौता नहीं कर सकते, वे डीएवी या दूसरे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिए बिहार छोड़ देते हैं.

 

जितने पैसे में दिल्ली में एक आदमी नहीं चल सकता, बिहार में परिवार चलाया जा रहा है.

 

पटना, मुजफ्फरपुर, गया, भागलपुर जैसे बड़े शहरों में कुछ निजी कंपनियों के छिटपुट कारोबार हैं. निजी नौकरी का बड़ा हिस्सा इन शहरों में ही है.

 

यह भी बताना भी चाहता हूँ कि बिहार के लोग सिर्फ दिल्ली, पंजाब, हरियाणा या महाराष्ट्र ही नहीं जाते हैं. बिहार के अंदर भी बेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर, लखीसराय जैसे जिलों से हजारों लोग पटना का रुख करते हैं.

 

बिहार से निकलने वाले लोगों में बड़ी संख्या तो निर्माण और खेती में मजदूरी करने वाले लोगों की है. सरकार उनके लिए रोजगार की गारंटी नहीं कर पाती. खेती में घाटा-दर-घाटा से उब चुके किसानों के लिए मजदूर रखना, घाटे को बढ़ाने जैसा होता जा रहा है. विज्ञान ने खेतिहर मजदूरों की जरूरत को अलग से खत्म किया है.

 

कोई घर छोड़ने के वक्त ये नहीं देखता कि वो दिल्ली जा रहा है या पटना. वो बस ये देखता है कि उसे कुछ काम मिलेगा कि नहीं. वह यह देखता है कि उस काम के बदले में जो पैसा मिलेगा, उससे वह घर-परिवार की न्यूनतम जरूरतों को पूरा कर सकेगा कि नहीं.

 

मेरी ही बात लीजिए न.

 

वहां दैनिक जागरण में काम करता था. छोड़ने तक नियुक्ति पत्र नहीं मिली. पाँच साल से ज्यादा नौकरी की तरह काम करने के बावजूद जब दिल्ली आ रहा था तो पगार पाँच हजार से कुछ कम थी. शुरुआत तेरह सौ से की थी. आज दिल्ली में तकरीबन 20 हजार से ऊपर कमा लेता हूँ.

 

बिहार में एक तो तीन-चार अखबार हैं. ऊपर से जमे हुए पानी की तरह जमे लोग हैं. बाजार भी जम गया है. नए लोग क्या करें, कहाँ करें. ऐसे में पत्रकारिता करनी थी और पेशे की तरह करनी थी तो दिल्ली आने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं था.

 

वहाँ रहता तो पत्रकारिता ही छूट गई होती. समय के साथ जब जिम्मेदारी बढ़ती है तो शौकिया काम अपने-आप कमता चला जाता है. फिर तो वही काम भाता-सुहाता है जो खुद के अलावा निर्भर लोगों की आकांक्षा को पूरा कर सके.

 

अब देखिए न, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के भी बहुत सारे लोग दिल्ली में पत्रकारिता करते हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि बिहार के लोग ही बाहर नौकरी करते हैं और जब बाहर जाते हैं, तभी अच्छा करते हैं.

 

आदमी अपने आपको बहुत ज्यादा नहीं बदल सकता और काम भी. जब किसी को करने लायक काम ही बिहार से बाहर मिले तो स्वाभाविक है कि वह आदमी नतीजा भी अपने प्रांत से बाहर ही देगा.

 

कल को पटना से 15-20 अखबार निकलने लगें, 5-10 चैनल शुरू हो जाएँ, कॉल सेंटर खुल जाएँ, ऑनलाइन पोर्टलों की कतार लग जाए तो कोई क्यों अपने घर से एक हजार किलोमीटर दूर दिल्ली में काम करने जाएगा.

 

फिर तो मैं भी अपने कई दोस्तों के साथ जय बिहार कहकर पटना के लिए संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस या भागलपुर के लिए विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़ लूँगा.

 

लेकिन ब्लॉगिंग नहीं छूटेगी. क्योंकि ये जो कीड़ा है और ऐसी जितनी भी बीमारियां अंदर मैं बसी हैं, वो इस कारण नहीं चली जातीं कि पांव दिल्ली में है या दरभंगा में

 

अगर आप कभी बिहार गईं हों तो आपके ब्लॉग पर उस अनुभव के बारे में कुछ पढ़ने की इच्छा है.

  

धन्यवाद

रीतेश

Sunday, February 3, 2008

आडवाणी जीः ठाकरे का हाथ या यूपी-बिहार का साथ...?

चुप क्यों हो आडवाणी जी....

लाल किशनचंद आडवाणी जी,
प्रणाम

नेताओं से चकमक आपकी पूरी भारतीय जनता पार्टी में बस आप ही मेरी पसंद के नेता हैं. सारे देश को अटल जी पसंद हैं, बेहद पसंद हैं. मुझे नहीं.


आप जब कट्टर थे, तब भी पसंद थे. अब उदार हो गए हैं, तब भी पसंद हैं. पसंद पार्टियों और स्टैंड की तरह बदली नहीं जा सकतीं.

नेता होने से ज्यादा साहस, गंभीरता और धैर्य की जरूरत होती है समर्थक होने में. नेताजी बदल जाते हैं, विचार बदल लेते हैं लेकिन समर्थक को साथ बने रहना होता है. नेता के हर कदम और हर बयान को सही ठहराना होता है.

संजय निरूपम शिवसेना में थे तो मुसीबत कम थी. जब से कांग्रेस में गए हैं, पूर्वांचल वालों पर पहाड़ टूट पड़ा है. महाराष्ट्र में जितने सेनानामी संगठन हैं, सचमुच बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को देखकर सैनिकों जैसी बातें करने लगे हैं.

असम में हिंदीभाषियों को मारने वालों और महाराष्ट्र में धमकाने वालों में बहुत अंतर नहीं रह गया है आडवाणी जी.

आपको प्रधानमंत्री बनना है. इसलिए नहीं कि देश को आपकी बहुत जरूरत है. इस देश को अफसर चला रहे हैं. नेता कोई हो, देश चल जाएगा. भरोसा न हो तो अपने किसी जिलाध्यक्ष को प्रधानमंत्री बनाकर देख लीजिए. देश पाँच साल बाद भी ऐसा ही रहेगा.

आपको प्रधानमंत्री इसलिए बनना है ताकि इन निकम्मे प्रधानमंत्री महोदय से देश को मुक्ति मिले. राज्यसभा और जनपथ वाले प्रधानमंत्री जी से मुक्ति दिला दीजिए, प्लीज़.

और, अपनी सरकार में आप राज्यसभा से किसी को मंत्री भी मत बनाना. पता नहीं ये कहां-कहां से पढ़कर आते हैं. एक फैसला ऐसा नहीं करते जो वोट देने वाले आम लोगों के हित में हो. कभी जाति देख लेते हैं, कभी धर्म देख लेते हैं. एक तो टीवी और अखबारों में छपने के अलावा कुछ करते नहीं, और जब करते हैं तो तीन-पांच कर देते हैं.

वाम प्रशंसक हूं लेकिन वोट आपको ही दूंगा. सच्ची में दूंगा. वामपंथियों ने तो कांग्रेस से भी ज्यादा नर्क कर रखा है. लोगों को बेवकूफ बनाने की भी कोई सीमा होती है कि नहीं. रोज गाली भी देते हैं और जिंदा रहने की गोली भी दे आते हैं.

खैर, मैं तो यही सोचकर कांप रहा हूँ कि सरकार में रहते मोदी के सैनिकों ने मजे से जो काम कर दिया था वह तो कांग्रेसी इंदिरा जी की हत्या के बाद भी नहीं कर पाए थे. अभी तक उस पार्टी में कोई साहसी नहीं हुआ जो यह कह सके कि 84 में जो किया था, वह ठीक था.

आपके बाद यह साहस और साफगोई मोदी जी में आई है. इसलिए देश के लोग आपके बाद उन्हें ही प्रधानमंत्री मानकर चलने लगे हैं. जोशी जी से बचकर रहिएगा तो कोई दिक्कत भी नहीं होगी.

लेकिन आप ये अभी बता दीजिए कि अगले साल जब आप गठबंधन दलों के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बनेंगे और रेसकोर्स में रहने जाएंगे तो ये सेना वाले आपके गठबंधन में तो नहीं होंगे न.

ये जान लेना इसलिए जरूरी है कि उसके बाद इनकी हरकतों पर आप तो कुछ करेंगे नहीं तो कम से कम महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार बचा ली जाए. वैसे भी विधि-व्यवस्था का मामला तो राज्य का ही काम है.

देश के लोगों का जाति या धर्म के नाम पर भड़कने और उसके भयावह नतीज़ों, दोनों के आप प्रत्यक्ष गवाह रहे हैं.

आपकी पार्टी और उसके बगलबच्चों में पहले से ही भारतीय संविधान को बिना पढ़े और दिल में उतारे कई लोग नेता बन चुके हैं. अब गठबंधन में ऐसे नेताओं को नहीं जुटा लीजिएगा. अर्जी बस यही है.

वोट तो आपको बिहार और उत्तर प्रदेश से भी लेना है. हम देना भी चाहते हैं. आपको बता दें कि हम आम चुनाव के इंतजार में बैठे हैं. लेकिन आप किसी दोयम नेता या त्रियम पार्टी से हाथ न मिला लीजिएगा जो कहते हैं कि बिहार के लोग बिहार में रहें, उत्तर प्रदेश वाले अपने राज्य में.

ऐसे राज्यप्रेमी के साथ आप चले जाएंगे तो हम देशप्रेमी आपके साथ भला कैसे रह पाएंगे. और आप उनका मनोबल बढ़ाएंगे तो क्या पता कल आपको भी कह दें कि गुजरात वाले भी भाग जाएं.

आप तो गुजरात के हैं न. मोदी जी के वोटर आपको वोट दे ही देंगे. लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश वाले आपके सहयोगी दलों की गाली और भभकी सुनने के लिए तो वोट देंगे नहीं.

हमारे पास वैसे भी लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती हैं. अपना-अपना राज्य, अपना-अपना नेता. हम इनसे काम चला लेंगे. आप अपनी सोच लीजिए. प्रधानमंत्री आपको बनना है. अगला चुनाव छह साल बाद होगा. उसे किसने देखा है.

राज ठाकरे के बयान पर केंद्र सरकार चुप है. कोर्ट में शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती है. सोमवार को देखते हैं कि कोई जनहित याचिका आती है या नहीं. नहीं आती है तो कोई न्यायालय संज्ञान लेता भी है या नहीं.

सब चुप रहें तो रहें, आप मत चुप मत होना. आपको प्रधानमंत्री बनना है. हमें आपको वोट देना है.

अगर देश के किसी भी प्रांत के लोगों को गाली दी जाती है और आपको फर्क नहीं पड़ता है तो हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि प्रधानमंत्री कौन बनता है. वैसे भी, बिहार और उत्तर प्रदेश वाले मिल जाएं तो प्रधानमंत्री तो बना ही लेंगे.

Monday, January 28, 2008

क्या कर रहे हैं जयप्रकाश बाबू...!

मेरे शहर से कल अमर भैया आए हैं. पूरा नाम अमरेंद्र कुमार अमर है. हम दोनों ने कभी साथ में पत्रकारिता की थी, कस्बाई. वैचारिक प्रतिबद्धता के लिहाज से हम दोनों आमने-सामने हैं. वे तब प्रसार भारती से जुड़े थे. आजकल भारतीय जनता पार्टी के जिला महासचिव हैं. पेशे से वकील हैं. आपराधिक मामलों में बचाव पक्ष की ओर से कोर्ट में पेश होते हैं. दैनिक जागरण में क्राइम की खबरें भी देखने के नाते भी हमारे संबंध बहुत गहरे हैं.

बेगूसराय के हम पत्रकार मित्र उन्हें अध्यक्ष जी ही बोलते हैं. हमने बुजुर्ग लोगों के प्रेस क्लब की सदस्यता न मिलने पर जिला पत्रकार संघ बनाया था और उसके वे पहले अध्यक्ष चुने गए.

सोमवार से शुरू हो रही भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में शामिल होने के लिए उनके साथ जिलाध्यक्ष श्रीबाबू और पूर्व जिलाध्यक्ष शंकर दा भी आए हैं. अमर भैया के ठरहने की ज्यादा बेहतर व्यवस्था कहीं और थी लेकिन मेरे आग्रह को वे टाल नहीं सके और लॉजनुमा व्यवस्था वाले मेरे घर पर रुके हैं. श्रीबाबू और शंकर दा पहले से तय जगह पर रुके हैं.

उनकी निर्धारित व्यवस्था से उन्हें अलग रोकने के लिए जुर्माना तय हुआ कि मैं उन्हें दोनों दिन उनके सम्मेलन स्थल रामलीला मैदान पहुँचाऊँगा.

सोमवार को भाजपा की बैठक के पहले दिन अमर भैया को रामलीला मैदान पहुँचाने के बाद जब मैं लौट रहा था तो टाइम्स ऑफ इंडिया के सामने सड़क पर मेरी नजर दिल्ली के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष जयप्रकाश अग्रवाल जी की औसत आकार की एक होर्डिंग पर पड़ी.

अग्रवाल साहब ने इस होर्डिंग के जरिए दिल्ली के लोगों को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएँ दी हैं. उनके ऐसे कई और होर्डिंग भी शहर में लगे होंगे लेकिन मुझे फिलहाल एक ही दिखा है. इस होर्डिंग के नीचे एक कूरियर कंपनी ब्लेज़फ्लैश के बारे में भी कुछ-कुछ लिखा है.

कांग्रेस की "विश्वसनीयता" को ब्लेज़फ्लैश भुना रही है या ब्लेज़फ्लैश की "संपन्नता" को कांग्रेसी नेता, इस पर मेरी तरफ से कहने के लिए कुछ नहीं है. ये चीजें बड़ी आम हो गई हैं. वैसे, हो यह भी सकता है कि इस कूरियर कंपनी के मालिक वे खुद हों या इस होर्डिंग को लगाने से पहले उनसे पूछा न गया हो और कंपनी वाले ने अपनी तरफ से उनके नाम से कुछ कर दिया हो.

मेरे मन में जो सवाल है वह यह कि क्या देश की मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय पार्टी के पास पैसों की इतनी कमी हो गई है कि उसके नेताओं को "प्रचार" सामग्री में प्रायोजक संग हिस्सेदारी करनी पड़े. अब अगर कल को जयप्रकाश बाबू को केंद्र में संचार मंत्री बनने का मौका मिल जाए और सरकार डाक विभाग में विनिवेश की सोच रही हो तो इसका फायदा कौन उठाएगा, कहने की जरूरत नहीं है.

जयप्रकाश जी की तस्वीर अखबारों और टीवी के अलावा इस शहर के छोटे-बड़े नेताओं के पोस्टर के साथ तमाम इलाकों में हैं. कुछ दिनों पहले तक जिन लोगों ने रामबाबू शर्मा के नाम की होर्डिंग लगा रखी थी, अब वे जयप्रकाश जी की जय-जयकार कर रहे हैं. लोग बदल जाते हैं, नेता बदल जाते हैं, समर्थक भी लेकिन इस तरह के "समर्थक" नहीं बदलते और पाई-पाई वसूलने की ताक में, जब तक आस हो, तब तक लगे रहते हैं.

थोड़ी कल्पना करें और यह चलन और आगे तक जाए तो क्या-क्या हो सकता है....

तालकटोरा स्टेडियम में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (एआईसीसी) की महाधिवेशन हो और मंच पर बैनर के नीचे प्रायोजक के बतौर रिलायंस इंडस्ट्रीज या शाहरुख खान की किसी कंपनी का नाम हो.

भाजपा का ही इसी तरह का कोई सम्मेलन हो तो मंच पर फिर रिलायंस इंडस्ट्रीज का नाम मिल सकता है.

समाजवादी पार्टी के सम्मेलन में सहारा का बैनर नजर आ सकता है. ऐसे में कम्युनिस्टों का सम्मेलन यमुना किनारे ही हो पाएगा.

कुछ दिनों में इस तरह के राजनीतिक आयोजनों में मीडिया पार्टनर भी नजर आ सकते हैं, वैसे ही जैसे मल्टीप्लेक्सों में फिल्म शुरू होने के बाद कुछ के नाम दिखाए जाते हैं.

जया अम्मा और करुणा बाबा को छोड़ ही दीजिए क्योंकि उनके तो चैनल खुलकर चल रहे हैं.

लेकिन घोषित रूप से कांग्रेस के मीडिया पार्टनर कौन-कौन हो सकते हैं, भाजपा के प्रचार का जिम्मा कौन सही से निभा सकता है, सपा की गारंटी कौन ले सकते हैं और और बसपा के हाथी का महावत कौन बन सकता है....राजद, लोजपा, जदयू...भी चुनौती कायम रखने के लिए क्या संभावित मीडिया पार्टनर पैदा कर सकते हैं.

आप तो जनता-जनार्दन हैं, अगर ऊपर दिए गए सवालों के जवाब मालूम हों तो मात्र छह रुपए खर्च करके संबंधित चैनल या अखबार को अपना एसएमएस भेजें. देश का भविष्य संवारने में आपका यह एसएमएस उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जो आपने भारत रत्न के दावेदारों के समर्थन में किए थे.

हमें चैनल और अखबारों में आपके एसएमएस नतीजों का इंतजार रहेगा.

हिदायत यह है कि आप अपने एसएमएस का प्रमाण साथ में रखें क्योंकि आप एसएमएस के न मिलने या उसके गुणा-गणित में धोखाधड़ी के शिकार भी हो सकते हैं.

Sunday, January 20, 2008

नौ साल बाद कोई चिट्ठी लिख रहा हूं...

प्रिय प्रभाकर जी,

आशा है आप सपरिवार अच्छे से होंगे. संजय भैया और सरजमीं परिवार भी ठीक-ठाक होगा. अशांत जी स्वस्थ होंगे.

मोबाइल पर आपने बताया कि सरजमी के गणतंत्र दिवस विशेषांक के लिए कुछ लिखना है. लिखने के इस न्योते की जो खुशी मुझे हो रही है, उसे मैं बयां नहीं कर सकता. मैंने भी अपने करिअर की शुरुआत आपके ही अखबार से की थी.

आज जब मैं घर से, अपने शहर से, आप सबसे दूर हूं, तब भी आप लोगों का ये स्नेह और प्यार भावुक कर देता है. मुझे क्या लिखना चाहिए, यह सोचने और तय करने में एक सप्ताह लग गया.

और मैंने यह तय किया है कि गणतंत्र दिवस या बेगूसराय के बारे में कुछ बघारने से बेहतर यह लिखना होगा कि जो लोग पढ़ने के लिए या काम की तलाश में बेगूसराय से बाहर निकलना चाहते हैं, उन्हें फौरी तौर पर खुद में क्या बदलाव लाना चाहिए.

इससे पहले की कुछ काम की बातें कहूं यह जरूर बताना चाहूंगा और इसके लिए आपको धन्यवाद भी देना चाहूंगा कि करीब नौ साल बाद मैं कुछ भी चिट्ठी के तौर पर लिख रहा हूं. डाकघर गए इससे भी ज्यादा समय बीत चुके हैं और अब मैं अपने मोहल्ले के डाकिए को भी नहीं पहचानता. अंतिम चिट्ठी मैंने एक प्रकाशक को कानूनी नोटिस को लेकर लिखा था.

अब बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं. मां से, पापा से, चच्चा से, पाठक चा और श्याम चा से... और आपसे भी, मोबाइल पर ही बातें हो जाती हैं. जितनी बातें हम कुछ मिनटों में कर लेते हैं, अगर उसे लिखना होता तो पता नहीं कितने पन्नों पर उंगलियां घिसनी पड़तीं और उस संवाद को पूरा होने में कुछ महीने जरूर जाया हो जाते.

हो तो यह भी सकता था कि आपका विशेषांक छपने के बाद मेरा लेख पहुंचा ही होता. तकनीक ने कई चीजें बदल दी है. हमारा-आपका काम भी इससे अछूता नहीं है. इसलिए हम सबको भी तेजी से बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए.

दिल्ली में पत्रकारिता के अलावा भी कई तरह के काम हैं जिससे लोग घर-परिवार का खर्च उठाने लायक कमा सकते हैं. मैं बात सिर्फ दिल्ली की करुंगा लेकिन आप दिल्ली की बजाय मुंबई, चंडीगढ़, जयपुर, कानपुर, भोपाल के लिए भी इन बातों को बराबर ही मान कर चलें.

बेगूसराय की पत्रकारिता और दिल्ली की पत्रकारिता में सबसे बड़ा अंतर यह है कि वहां आप हिन्दी की खाते हैं और हिन्दी की ही गाते हैं. हमारे साथ हिन्दी का खाना तो ठीक है लेकिन गाना अंग्रेजी का पड़ता है. हिन्दी के अखबारों या चैनलों में नौकरी देने से पहले जो परीक्षा ली जाती है, उसमें संपादक लोग अंग्रेजी की ही परख करते हैं.

हिन्दी प्रेम में बहे बिना यह भी साफ कर दूं कि इसका एक व्यवहारिक कारण यह है कि यहां देश और दुनिया के हरेक हिस्से की खबर आती है। हमें उन खबरों से जूझना होता है. अब अमेरिका वाले या चेन्नई वाले हमारी लिए हिंदी में तो लिखेंगे नहीं. लेकिन हमें अपने पाठकों के लिए उनकी अंग्रेजी को समझकर हिन्दी में ही लिखना होगा.

इसलिए आप जागरण में आएं या हिन्दुस्तान में जाएं, अंग्रेजी की अग्निपरीक्षा से तो गुजरना ही होगा. और अगर अंग्रेजी ठीक नहीं हो तो हिन्दी का आपका सारा ज्ञान संपादकों के लिए बेकार की चीज है. हिन्दी में विकलांग भी हों लेकिन अंग्रेजी से स्वस्थ हों तो संपादक मौका दे सकता हैं.

इसलिए अगर आप या आपका कोई परिचित दिल्ली आने की तैयारी कर रहा हो तो उसे कुछ अंग्रेजी अखबार और अंग्रेजीदां मास्टर साहब की संगत डाल लेनी चाहिए.

दिल्ली में पत्रकार सिर्फ हिंदी में बोलते और लिखते हैं, सुनने और पढ़ने का ज्यादातर काम अंग्रेजी में ही करना पड़ता है. मैं भी बिना अंग्रेजी अखबार पढ़े दिल्ली आ गया था लेकिन किस्मत से उस जगह पहुंच गया जहां से निकलने के बाद किसी ने उस कमजोरी पर हाथ नहीं दिया। नहीं तो हर रोज देखता हूं कि मेरे संपादक दो-चार लोगों को इकोनॉमिक टाइम्स या टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर का अनुवाद करने देते हैं और उसे देखने के बाद कहते हैं कि इसमें अनुवाद की कुल 26 गलतियां हैं और मात्रा के 32 दोष हैं।

इसे ठीक किए बिना भी कहीं-कहीं और कभी-कभी दिल्ली में नौकरी मिल जाती है. लेकिन वह बस नौकरी ही रह जाती है. तरक्की, सम्मान और दूसरी चीजें कभी नहीं मिल पातीं.

तो पहली बात हिन्दी और अंग्रेजी को साथ लेकर चलने की रही.

दूसरी बात यह है कि दिल्ली आने से पहले कुछ काम उच्चारण पर भी कर लें तो ढ़ेर सारी बेवजह की फजीहत से बच जाएंगे. मेरी ही बात लीजिए. मैं आज तक अपना नाम सही से नहीं ले सका हूं. जब मैं रीतेश बोलता हूं तो असल में रीतेस बोल रहा होता हूं. दिल्ली के लोग ऐसा नहीं बोलते. चंडीगढ़ वाले भी शुद्ध बोलते हैं.

आदरणीय गुरुजनों से एक अनुरोध है कि अगर वे कुछ कर सकते हैं तो कम से कम पहली-दूसरी से ही बच्चों के उच्चारण पर कुछ ध्यान जरूर दें. नहीं तो सारी पढ़ाई पर उस समय शर्म आती है जब मैं अपना नाम भी सही से नहीं बोल पाता हूं. मेरे उच्चारण में सिर्फ इसलिए दोष नहीं हो सकता कि मैं बेगूसराय में पैदा हुआ हूं. अगर चंडीगढ़ के लोग सही बोल सकते हैं तो हम भी बोल सकते हैं.

इसलिए मेरा तो यही मानना है कि परवरिश और पढ़ाई में ही कुछ ढ़िलाई रह गई होगी कि यह कमी दूर नहीं हो सकी. गुरुजी लोगों को यह काम तो करना ही चाहिए.

और आखिरी बात, बेगूसराय में तो बड़ी संख्या में नौकरी है नहीं. शहर छोड़ना ही होगा. सरकार के पास नौकरी देने की कोई ठोस योजना एक तो है नहीं और अगर है भी तो जनसंख्या के लिहाज से वह बड़ी आबादी के काम की नहीं है.

अगर आप इंजीनियर, डॉक्टर, सीए, वकील या किसी खास पेशेवर डिग्री से लैस नहीं हैं तो दिल्ली, मुंबई या ऐसे ही बड़े शहरों में जो नौकरियां हैं उसमें कॉल सेंटर और इंटरनेट पर कारोबार कर रही कंपनियों का ही योगदान है. इंटरनेट और कॉल सेंटर का कोई भी कारोबार बिना अंग्रेजी के चल नहीं सकता. इसके लिए कम्प्यूटर की भी ठीक-ठाक समझ होनी ही चाहिए. ये नौकरियां अब पटना तक भी पहुंच रही हैं लेकिन उसकी पात्रता नहीं बदली है.

नौकरी आप कहीं करें, जिस तरह की नौकरियां अब बाजार में हैं, उसमें अंग्रेजी और शुद्ध उच्चारण के बिना गुजारा नहीं है.

इसलिए गणतंत्र दिवस के मौके पर आरएस गवई साहब क्या बोलते हैं, नीतीश कुमार क्या कह रहे हैं, राजीव रंजन सिंह क्या कहना चाहते हैं, संजीव हंस क्या बताना चाहते हैं... आपके लिए किसी काम की नहीं है. इस दिन का हमारे और आपके लिए सही इस्तेमाल यही है कि हम अंग्रेजी और हिन्दी के साथ कोई भेदभाव किए बिना कल से पढ़ने की कोशिश शुरू कर दें. कोई गलत बोल रहा तो तो उसे उच्चारण ठीक करने की सलाह दें, सुधारने के तरीके बताएं और पहली गाड़ी पकड़ कर जहां भी नौकरी मिल रही है, उसे झटकने के लिए चल पड़ें.

इस बीच मैंने इंटरनेट पर गूगल में बेगूसराय का न्यूज अलर्ट लगा लिया है. अच्छी चीजें तो खबरों की परिभाषा से बाहर कर दी गई हैं. जब वहां खून होता है, गोली चलती है, बांध टूटता है, सचमुच कोई "खबर" बनती है तो मेरा जीमेल आपके फोन से पहले मुझे बता देता है कि कुछ हो गया है. यही तकनीक है और उसकी ताकत भी. आप भी इस ताकत को महसूस करें और दूसरों को भी ताकतवर बनने की सलाह दें.

बाकी बातें मोबाइल पर करेंगे. आपके अखबार की एक प्रति पाने का अधिकारी हूं, बस इसे याद रखिएगा. विशेषांक बेहतर हो और सफल हो, मेरी शुभकामनाएं हैं.

आपका
रीतेश
20-01-2008