Wednesday, March 26, 2008

दिल्ली और वॉकिंग डिस्टेंस....

दिल्ली. नई दिल्ली तो कागज पर ही लिखते हैं. मेरे शहर से बड़ी संख्या में यहां लोग आते-जाते रहते हैं. कुछ काम करने आते हैं, कुछ नेता से काम कराने, कुछ इलाज कराने.... और मेरी तरह के कुछ लोग पढ़ने-लिखने के साथ ही यहीं बसने आ जाते हैं.
 
दिल्ली में बसने के लिए 27 जुलाई, 2005 को एक बैग में अपने सारे जरूरी सामान के साथ चला था. इससे पहले भी दो-दो दिन के लिए दो बार दिल्ली आ चुका था.
 
बेगूसराय में दैनिक जागरण की पांच साल की रिपोर्टरी में मोटरसाइकिल पर ही चढ़े रहने की लत लग गई थी लेकिन उसे यह सोचकर वहीं छोड़ आया था कि दिल्ली में कौन सी हवाखोरी करनी है. घर पर बाइक रहेगी तो जब कभी जाना होगा, वहीं हवाखोरी कर लेंगे.
 
28 जुलाई को सुबह नौ बजे विक्रमशिला एक्सप्रेस से उतरकर ऑटो की मदद से कटवारियासराय पहुंचा. हिंदुस्तान अखबार के मेरे जिले के एजेंट ज्योति बाबू ने अपने भतीजे के पास जाने की सलाह दी थी ताकि ठीक-ठाक कमरा मिल जाए. एक महीने तक बिट्टू बाबू की मेजबानी का मजा लेने के बाद कमरा मिला. यह पहले भी मिल सकता था लेकिन जैसा मुझे चाहिए था, वैसा मिल नहीं पा रहा था. मसलन, ज्यादा सीढ़ी न चढ़नी पड़े, खिड़की हो, धूप भी आती हो, कुल मिलकार हवामहल जैसा हो. इतनी शर्तों पर खरा उतरने वाला कमरा दिल्ली में तुरंत नहीं मिल पाता.
 
पहली सीख यही रही.
 
एक अगस्त से आईआईएमसी में क्लास शुरू होने थे. मेरा जन्मदिन भी इसी तारीख को है. बड़ी मायूसी के साथ हिंदी पत्रकारिता विभाग के निदेशक प्रो. सुभाष धूलिया जी के आदेश पर (कुछ लेट से आने की अनुमति मांगने पर) दिल्ली आ गया था कि जन्मदिन यहीं मना लेना. पहले दिन जन्मदिन होने का ही सौभाग्य था कि आधे क्लास से चार घंटे में ही जान-पहचान हो गई. कैंटीन में गए और कह दिया कि जिन्हें जो भी पसंद है, खाएं. कुछ ने खाया, कुछ शर्मा गए. इसके बाद से तो खाने-खिलाने का जो चस्का लगा, वो अब छूटने से रहा. साल में दो-चार दफे दर्जनिया पार्टी न हो तो मजा ही नहीं आता.
 
अब बात दूसरी सीख की
 
दिल्ली पहुंचने से पहले यह बात किसी ने अनुभव के नाम पर भी बता दी होती तो मैं बिना बाइक के नहीं आता. क्लास शुरू हों इससे पहले कटवारियासराय से आईआईएमसी कैंपस का रास्ता वगैरह देख लेना जरूरी था. तो 31 जुलाई को नहा-धोकर निकल पड़े. कटवारियासराय स्टैंड पर एक सज्जन से पूछा कि आईआईएमसी किधर है और कितनी दूर है. उन्होंने सीधे हाथ-उल्टे हाथ के हिसाब से कुछ बताया और कहा कि वॉकिंग डिस्टेंस है.
 
चल पड़े, चलते रहे और जब तक चलते-चलते थक नहीं गए तब तक आईआईएमसी नजर नहीं आया. कुल मिलकार दो किलोमीटर से ज्यादा दूरी रही होगी. जी में आया कि उस आदमी को पकड़कर पीटूं जिसने दो किमी को भी वॉकिंग डिस्टेंस मान रखा है. लेकिन मैंने बाद के दिनों में पाया कि इतनी दूरी को यहां रहने वाले वॉकिंग डिस्टेंस बोलकर पैदल ही तय कर लेते हैं. फिर जितना जल्दी हो सका, मैंने अपनी बाइक दिल्ली मंगवा ली. तब से न तो किसी से वॉकिंग डिस्टेंस जानने की जरूरत हुई है और न पैदल चलने की.
 
लेकिन यह सवाल तो बनता ही है कि जब दिल्ली के लोग दो-तीन किलोमीटर वॉक ही करते हैं तो दौड़ते कितना होंगे ... क्या इसीलिए दिल्ली में हर साल कोई न कोई मैराथन होता रहता है ???

Saturday, March 8, 2008

और क्या कहें, राजधानी की सुनें...

ट्रेनों के लेट होने से खाने-पीने को तरस गए यात्री

पावर लाइन ट्रिप करने से करीब सौ ट्रेनों में सफर कर रहे यात्रियों पर बिजली गिर पड़ी. दिल्ली आ रही गाड़ियां सुबह से ही रेंग रही थीं. रेलमंत्री लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो 'सामाजिक न्याय' सा माहौल लग रहा था. क्या राजधानी, क्या विक्रमशिला और क्या आम्रपाली, सब आसपास, एक गति से, लय मिलाकर, एक के पीछे एक चल रही थीं.

रेल की बात कर रहे हैं तो उस ट्रेन की बात करते हैं जिसे पटरियों पर 'विशेषाधिकार' प्राप्त है. राजधानी एक्सप्रेस. गाड़ियों की लेटलतीफी में उस राजधानी का हाल सुनिए जो रेलमंत्री के सूबे (पटना) से दिल्ली आ रही थी. इसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन सुबह दस बजे के आसपास पहुंच जाना था लेकिन उस वक्त वह उत्तर प्रदेश के किसी वीरान इलाके में हिचकोले खा रही थी.

सेकेंड एसी के कोच ए-4 का नजारा. एक युवक ट्रेन अधीक्षक से बार-बार दिल्ली पहुंचने की स्थिति पूछ रहा था. जब दोपहर के एक बजे तो उसने वहा में गुरजते एक जहाज को देखकर कहा, 'लगता है मेरी फ्लाइट छूट गई.' इस नौजवान को अहमदाबाद जाना था.

बिहार में निजी क्षेत्र की शीर्ष डेयरी गंगा डेयरी के एमडी अखिलेश कुमार बार-बार स्टेट बैंक के एक महाप्रबंधक को फोन लगा रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन्हें शुक्रवार को महाप्रबंधन ने मिलने का समय दिया था. इस क्षेत्र में मिलने वाली सरकारी सहायता राशि के लंबे समय से लंबित भुगतान के लिए वे दिल्ली आए थे. अपराह्न दो बजे के बाद वे नई तारीख लेने की कोशिश करते दिखे.

भाजपा नेताओं की एक टीम अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिलने आ रही थी. विधान पार्षद गिरिराज सिंह, प्रदेश उपाध्यक्ष लालबाबू प्रसाद और महासचिव मंगल पांडेय लगातार राजनाथ के निजी कर्मचारियों से संपर्क बनाए थे. विधान परिषद की सीटों के लिए चुनाव के मद्देनजर ये दिल्ली आए हैं. अब राजनाथ इनसे शनिवार को मिलेंगे.

इसी तरह किसी का ऑफिस छूट गया, किसी की बैठक छूट गई. कुछ न कुछ तो हर किसी का छूटा.

ट्रेन अधीक्षक की खोज हुई. पता चला श्रीमान पैंट्रीकार में पूड़ी बना रहे हैं. उनसे पूछा तो कहा कि अलीगढ़ से पानी और खाना का सामान लेने के लिए आर्डर दिया गया है. शाम में पता चला कि पैंट्री के मैनेजर ने आर्डर रद्द करवा दिया. फिर शुरू हुई शिकायत पुस्तिका की खोज ताकि यात्री अपना गुस्सा दर्ज कर सकें.

यात्री सुविधाओं की बात करें तो दोपहर होते-होते खाना खत्म, पानी खत्म, चाय भी नहीं. हील-हुज्जत के बाद ढाई-तीन बजे के आसपास चावल और दाल दिया गया. दोनों को एक साथ मिला दें तो खिचड़ी भी शर्मा जाए. लोग इसे भी खा गए. भूख तो ऐसी ही होती है. लेकिन खाने के बाद पानी नहीं. मांगा तो भी नहीं दिए. पैसे दिए तो भी नहीं.
इस दौरान ट्रेन कितनी जगह रुकी, गिनती नहीं की जा सकती. पटरियों के आसपास से जैसी-तैसी चीजें खरीदकर लोगों ने भूख मिटाई लेकिन राजधानी वालों ने कुछ नहीं दिया. तारीफ कीजिए विक्रमशिला के पैंट्री स्टाफ की जो अपने यात्रियों के लिए एक खेत से आधा क्विंटल आलू खरीद लाया ताकि देरी से परेशान यात्री कुछ तो खा सकें.
साभारः- आज समाज, 8 मार्च, 2008