Wednesday, May 21, 2008

चैनलों के दारोगा और आरुषि-हेमराज हत्याकांड...

जयपुर धमाके की पहली ही रात अपनी मेधा से पूरे देश और बाकी दुनिया की आंखें चौंधिया चुके हिंदी चैनलों के पत्रकारों ने उत्तर प्रदेश के नोएडा में एक डॉक्टर परिवार की बेटी और उसके नौकर की हत्या की तहकीकात की रिपोर्टिंग से तो मंत्रमुग्ध ही कर दिया.

 

जयपुर में धमाके के कुछ ही घंटों के अंदर हरेक हिंदी चैनल हूजी-हूजी, हूजी-हूजी की रट लगाने में जुट चुका था. आधार क्या था, यह जानना और भी दिलचस्प है. मसलन वे बता रहे थे कि चूंकि ये धमाके मंगलवार को किए गए हैं और इससे पहले जिन भी धमाकों में हूजी का नाम आया था, वो भी मंगलवार के ही दिन किए गए थे, इसलिए जयपुर के धमाके में भी हूजी का ही हाथ है.

 

बस हो गई तफ्तीश, जांच खत्म. नतीजा सामने है.

 

लेकिन सच यह है कि अभी तक सरकार और दूसरी खुफिया एजेंसियां भी तय नहीं कर पाई हैं कि ये धमाके सचमुच हूजी की ही करतूत है. ऐसा नहीं है कि हूजी ऐसा नहीं कर सकता लेकिन ये कहने और बताने की इतनी जल्दबाजी इन पत्रकारों को क्यों है.

 

इन पत्रकारों ने बाद में ये बताया कि जिन साइकिलों को धमाके में इस्तेमाल किया गया, उसे बेचने वाले दुकानदारों ने बताया कि खरीदार बांग्ला बोल रहे थे. चूंकि हूजी का गठन बांग्लादेश में हुआ और वहां से ही उसे ज्यादातर खुराक और ताकत मिलती है और बांग्लादेश में भी लोग जमकर बांग्ला बोलते हैं तो ये पक्का हो गया कि धमाके हूजी ने ही किया.

 

ये भी बताया कि एक के बाद एक धमाके करने का चस्का सिर्फ हूजी को ही है. इसलिए जयपुर में सात धमाके करने के पीछे हूजी ही है.
 
लेकिन क्या दूसरे आतंकवादी संगठनों को एक के बाद एक धमाके करने की मनाही है, उन्हें बांग्ला बोलने वालों को अपने गिरोह में शामिल करने से मना कर दिया गया है और उन्हें मंगलवार को छोड़कर ही किसी दिन भी धमाके करने कहा गया है. जिस देश में ऐसे होनहार और समझदार पत्रकार हों, वहां किसी सुरक्षा एजेंसी और जांच एजेंसी की क्या जरूरत है.

 

देश के एक प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक ने गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल के बारे में धमाके की खबर के साथ ही लिखा कि इस तरह की घटना होने पर टीवी चैनलों के पत्रकारों के पास बस वे अकेली पसंद होते हैं. टीवी पत्रकारों को यकीन हो गया है कि सरकार में वही एक आदमी हैं जो फौरी तौर पर धमाके के स्वरूप और उसके पीछे छुपी ताकतों को बिना किसी लाग-लपेट के उगल देंगे. अलबत्ता, कभी-कभी तो मंत्रीजी वह भी बता देते हैं जो सुरक्षा या खुफिया एजेंसियों को भी तब तक नहीं पता होता है.

 

इस मायने में इस बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान काफी संतुलित रहा. जयपुर धमाकों की अब तक की जांच के आधार पर राज्य या केंद्र की जांच एजेंसियां किसी संगठन या किसी सरगना का नाम लेने की हालत में नहीं हैं. गिरफ्तारी वगैरह तो दूर की बात है. मनमोहन सिंह ने हूजी या ऐसे किसी भी संगठन को निशाना बनाते हुए कहा कि ये वो ताकतें हैं जो पाकिस्तान के साथ सामान्य हो रहे भारतीय संबंधों में रोड़ा अटकाना चाहती हैं.

 

अब बात करते हैं नोएडा के आरुषि और हेमराज हत्याकांड की...

 

पहले ही दिन पत्रकारों ने पुलिस वालों के कहने पर दुनिया को बता दिया कि डॉक्टर राजेश तलवार और उनकी पत्नी डॉक्टर नुपूर तलवार जब रात में सो रहे थे तो उसी दौरान उनके घरेलू नौकर हेमराज ने आरुषि की हत्या कर दी और फरार हो गया. अगली सुबह नौकरी पूरी कर नागरिक जीवन बिता रहे एक पूर्व डीएसपी से पहले आखिर कोई रिपोर्टर उन सीढ़ियों तक क्यों नहीं पहुंच पाया जिसे चढ़कर केके गौतम साहब ने आरुषि के संदिग्ध हत्यारे की लाश ही सामने ला दी.

 

चूंकि मैंने भी कुछ दिनों तक बिहार में दैनिक जागरण की नौकरी के दौरान एक ब्यूरो कार्यालय में पांच-छह जिलों की क्राइम बीट देखी है इसलिए हत्या, बलात्कार, लूट, डकैती और ऐसे ही कई मामलों को नजदीक से देखने और समझने का थोड़ा-बहुत मौका मिला है. उन दिनों और वहां के पत्रकारों की लिखी खबरों को देखता हूं तो लगता है कि दिल्ली के ज्यादातर क्राइम रिपोर्टर पुलिस प्रवक्ता के तौर पर ही काम करते हैं. उस अनुभव के आधार पर यह लगता है कि चैनलों और अखबारों को भी अब अपने पत्रकारों के प्रवक्ता बनने से कोई एतराज या परहेज नहीं है.

 

बिहार में आम तौर पर कोई क्राइम रिपोर्टर ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी हत्या की खबर करने गया हो और पुलिस वाले के कहे-सुने को ही लिख डाले. वह खुद भी चलता-फिरता है, कुछ सवाल करता है, कुछ जवाब तलाशता है. कम से कम जहां खून हुआ हो, वहां के चप्पे-चप्पे को तो देख ही लेता है. जांच अधिकारी बनकर नहीं तो कम से कम दर्शक बनकर ही.  नोएडा में पत्रकार सिर्फ आरुषि के बेडरूम से ही क्यों लौट गए.

 

दूसरी बात, चूंकि हत्या लड़की की हुई थी तो कई पत्रकारों ने संदेह जता दिया कि हत्या से पहले आरुषि के साथ जबर्दस्ती की गई थी. जबकि आम तौर पर हत्या के बाद भी लड़की के शरीर पर और आसपास बलात्कार के निशान ऊपरी तौर ही मिल जाते हैं. किसी पत्रकार ने ऐसे किसी सबूत का हवाला नहीं दिया कि हत्या से पहले बलात्कार किया गया, ऐसा उन्हें क्यों लगता है. हो सकता है, उसका मुंह बंद करने से पहले हत्यारों ने मुंह काला किया हो, लेकिन इसका कोई सबूत तो दिखेगा. अगर पीड़िता का शरीर सामने हो तो ये अपराध आंखों से छुप नहीं सकते.

 

तीसरी बात, हत्या इतनी निर्ममता से की गई कि लगता है कातिल बहुत ही सनकी किस्म का था. अखबारों से मालूम हुआ कि बच्ची के शरीर पर चाकुओं के कई निशान थे और सबसे गहरा जख्म गले पर था. इसका एक मतलब तो यह है ही कि लड़की के गले पर हमले से पहले ही शरीर पर चाकू चलाए गए क्योंकि गले पर गहरे हमले के बाद आगे हमले की कोई जरूरत नहीं रह जाती थी. थोड़ा विस्तार से बात करें तो अगर गले पर चाकू चलने से पहले आरुषि ने शरीर के किसी भी हिस्से पर हमला झेला तो वह जग चुकी थी, वो चीखी भी होगी लेकिन पास के कमरे में सो रहे उसके मां-बाप तक उसकी आवाज क्यों नहीं पहुंच सकी, ये मेरी समझ से बाहर है.

 

निश्चित रूप से पुलिस वालों को भी यह सवाल परेशान कर रहा होगा इसलिए उसके मां-बाप और दूसरे रिश्तेदारों से भी पूछताछ हो रही है. कुछ चैनलों पर दिखा कि राजेश और नुपूर के बयान में अंतर या यूं कहें कि विरोधाभास है. ऐसा है तो साफ है कि दोनों पूरा सच नहीं बोल रहे हैं और अगर झूठ बोल रहे हैं तो दोनों में तालमेल की कमी है जो पुलिस के सामने जाहिर हो जा रही है. लेकिन मां-बाप को संदिग्ध हत्यारे की तरह पेश करने से पहले पत्रकारों को बहुत ठोस और तार्किक सबूतों का इंतजार कर लेना चाहिए था क्योंकि जो उनकी छवि का जो नुकसान चैनल वाले कर जाएंगे, उसकी भरपाई करने वो दोबारा सेक्टर 25 के जलवायु विहार कभी नहीं जाएंगे.

 

चौथी बात, सोमवार को सारा दिन चैनल वाले कुछ पुलिस अधिकारियों के हवाले से बताते रहे कि डॉक्टर के पुराने नौकर विष्णु को हिरासत में ले लिया गया है. इसके साथ ही सीधे-सीधे शब्दों में कुछ कहे बिना यह भी बताने की कोशिश की गई कि हत्या इसी ने की हो सकती है. सकने के नाम पर तो कुछ भी हो सकता है. लेकिन चैनल वाले इसके साथ यह भी लगातार बता रहे थे कि हत्या जिस समय हुई, उस समय विष्णु नेपाल में था. मतलब, जिसे पुलिस ने हत्या के मामले में पूछताछ के लिए हिरासत में लिया, वह वारदात के वक्त नेपाल में था और ऐसे में कम से कम वह खूनी तो नहीं ही हो सकता. चैनल वाले एक साथ दोनों विरोधाभासी खबरें चला रहे थे. सोचने-समझने की कोई जरूरत चैनल वाले महसूस नहीं करते क्या. कुछ तो सवाल उनके मन में पैदा होने चाहिए कि इस खबर को क्यों चलाएं और कैसे चलाएं. पूछताछ तो किसी से भी की जा सकती है. पुलिस को जहां भी रोशनी नजर आती है, वह वहां तक जाती है लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि जिसे भी हिरासत में लिया जाए या जिससे भी पूछताछ की जाए, वह हत्यारा या षड्यंत्रकर्ता ही हो.
 
पांचवीं बात, नौकर हेमराज का शव मिलने के बाद भी आशंका जताने का दौर जारी रहा. कोई कह रहा था कि हेमराज ने जिसके साथ मिलकर आरुषि को मारा और उसी से उसे मार दिया. कोई कह रहा था कि हेमराज की हत्या होते आरुषि ने देख ली इसलिए उसकी भी हत्या कर दी गई. हरेक पत्रकार तथ्यों का अपनी तरह से विश्लेषण कर रहा था.
 
ये कोई चुनाव नतीजों के विश्लेषण जैसा काम नहीं है कि योगेंद्र यादव या आशुतोष की तरह पत्रकार आंकड़े लेकर बैठ जाएं और बांचते रहें कि ऐसा हुआ इसलिए ऐसा हुआ, ऐसा नहीं हुआ इसलिए ऐसा हुआ और ऐसा हो गया होता तो ऐसा होता. ये खून का मामला है जिसमें सिर्फ एक ही बात सच होगी. उस सच के सामने आने से पहले इतने पूर्वानुमान की जरूरत नहीं है, वो भी इस तरह के पूर्वानुमान की जो अटकल और गप्प से ऊपर के दर्जे की है ही नहीं.
 
ये तो वही बात है कि सारी अटकलें लगा दो, कोई न कोई तो नतीजे के पास होगी. सबसे बड़ी बात ये है कि पत्रकारों ने इस मामले में इस तरह से पुलिस पर दबाव बना रखा है कि उन्हें हत्यारे का नाम एक हफ्ते में ही चाहिए जबकि इस तरह के उलझे मामलों की जांच एक महीने में भी पूरी हो जाए, इसकी कोई गारंटी नहीं है. ऐसे में पुलिस पर इस बात का दबाव ज्यादा है कि वह किसी को भी एक ठोस कहानी के साथ सामने लाकर पटक दे कि लो, ले जाओ, दिखाओ, बेचो, छापो, यही है हत्यारा.
 
और भी कई ऐसी उटपटांग बातें इस हत्याकांड को लेकर पत्रकार लिखते और बकते नजर आए जिन पर गुस्सा आता था कि इन बेवकूफों को क्यों और कैसे पत्रकार बना दिया गया.  असल में, दिल्ली में पत्रकारों की जो बहुत बड़ी फौज है, वह पब्लिक स्कूलों में पढ़ी है और ऐसे समाज में पली-बढ़ी है जिसे ये पता नहीं होता कि उसका पड़ोसी कौन है. वहां खून-वून भी कभी-कभार ही होते हैं. किसी संगीन अपराध की बारीक जांच करने के लिए अनिवार्य तो नहीं लेकिन ये बहुत जरूरी है कि जांच करने वाला थोड़ा सामाजिक और थोड़ा असामाजिक हो. सामाजिक संगत होने से उसे ये आभास होगा कि खून किन-किन कारणों से हो सकते हैं और असामाजिक होने का असर ये होगा कि उसे यह भी पता होगा कि खून करने वाला यह काम क्यों, कब और कैसे करता है.
 
और किसी के पास हों न हों, कम से कम क्राइम रिपोर्टरों के पास तो दोनों तरह की संगति के पर्याप्त मौके होते हैं.

Saturday, May 17, 2008

बॉलीवुड के कमीशन एजेंट हैं ये समाचार चैनल...

पता नहीं हर सप्ताह फ्लॉप और बकवास फिल्में देखने के लिए लोगों को उकसाने के एवज में ये सारे समाचार चैनल कितने पैसे लेते हैं. सोमवार से जो ये गाना गाना शुरू करते हैं तो शुक्रवार को फिल्म के रिलीज होने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते हैं.

 

इन चैनलों के चक्कर में मैंने इतनी सारी सिरदर्द फिल्में देख ली हैं कि हजारों रुपए की बद्दुआ उनका पीछा नहीं छोड़ेगी. पिछले शनिवार को टशन देखने चला गया था, टेंशन हो गया. जब आदित्य चोपड़ा के निर्देशक को तंबाकू खाने का तरीका नहीं मालूम था तो अनिल कपूर को तंबाकू खिलाने की जरूरत ही क्या थी?

 

और पुराने जमाने में सफल फिल्में बनाने वाली भी ऐसी चाट और सिरखाऊ फिल्में पेश करे हैं कि अब नाम पर से भरोसा ही उठ गया है. यश चोपड़ा साहब की झूम बराबर झूम, नील एंड निक्की हो या यश जौहर की कंपनी की कभी अलविदा न कहना.

 

अमिताभ बच्चन का फिल्म में होना कहीं फिल्म के हिट होने की गारंटी है क्या.

 

खैर, बॉलीवुड के इस दोगलेपन का नतीजा यह निकला है कि अब कोई फिल्म दो सप्ताह से ज्यादा नहीं टिक पाती. दर्शक दो दिनों में फिल्मों का हिसाब कर लेते हैं. वो तो भला हो मल्टीप्लेक्सों का कि कुछ हजार लोग भी फिल्म देख लें तो फिल्में घाटे से उबर जाती हैं.

 

दूसरा असर यह हुआ है कि पश्चिमी रंग-ढंग में अंग्रेजी-हिंदी मिक्स करके गाना और फिल्म बनाने के चक्कर में अंग्रेजीदाँ लोगों ने इतने नर्क बोए कि अब बिहार, यूपी जैसे बड़े हिंदी बाजार में अधिकांश सिनेमा घरों में भोजपुरी फिल्में चलती हैं.

 

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि देश के तमाम बड़े-बड़े पत्रकारों ने जिस तरह से अंग्रेजी में लिखकर हिंदी अखबारों का पन्ना भड़ा है और अब भी भड़ रहे हैं, ये फिल्में भी उसी तरह हिंदी के बाजार से अंग्रेजी का घर भर रही हैं.

 

बेसिर-पैर की कहानी, पारिवारिक मूल्यों को तोड़ती कहानी, युवाओं को ललचाती कहानी...गांवों को नहीं लुभा पा रही हैं. गाँव के लोगों की नजर में पथभ्रष्ट और चियरलीडर्स को देखकर फूले जा रहे मध्यवर्ग को साधने के चक्कर में साधारण लोग क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को हिट करा रहे हैं.

 

जबकि कोई भी भोजपुरी फिल्म बिहार-यूपी में पाँच सप्ताह से ज्यादा चल जाती है क्योंकि उसे देखकर लोगों को लगता है कि ये कुछ आसपास की कहानी है.

 

बॉलीवुड की फिल्में जब मैंने देखनी शुरू की थी तब हिट होने के लिए फिल्म का कम से कम पचास दिन चलना जरूरी माना जाता था. सौ दिन चले बिना सुपरहिट होना संभव ही नहीं था.

 

लेकिन ये चैनल वाले हर सप्ताह बताते हैं कि कैटरीना कैफ की ये, सलमान खान की वो, शाहरुख की फलाँ, अमिताभ की ढेकानाँ फिल्म सुपरहिट रही. काहे कि हिट भैया. तुमने गाया नहीं होता तो औकात पता चल जाती. कमीशन खाए चैनलों के प्रचार से दिग्भ्रमित लोग सिनेमा हॉल से जब तक लौटते हैं, फिल्म हिट हो जाती है.

 

ये हिंदी की खाने वाले आखिर गा किसकी रहे हैं. हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक, सब के सब अपनी फिल्मों के प्रचार में, भले ही हिंदी चैनल पर क्यों न हों, अंग्रेजी बोलकर कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका के दर्शकों को लुभा रहे हैं. कुछ जादू दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों पर भी चल जाता है लेकिन गांव और छोटे शहर धीरे-धीरे इनकी पकड़ से बाहर निकल रहे हैं.

 

सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी बोलने, सुनने और हिंदी को जीने वाली बड़ी आबादी बॉलीवुड फिल्मों को भी हॉलीवुड की तरह देखने लगेगी.

 

गांवों में हॉलीवुड की फिल्मों को जिस रूप में देखा जाता है, वो तो आप समझते ही होंगे...