Sunday, October 11, 2009

ओबामा शांतिदूत, क्यों मनमोहन में कांटे लगे थे

12 दिन के लिए नोबेल. ये नोबेल का अपमान है या पतन, ये कहे बिना मैं इतना कहना चाहूंगा कि अगर ईरान के खिलाफ आग न उगलने या चीन के डर से नोबेल शांति पुरस्कार के ही दूसरे विजेता दलाई लामा तक से मिलने से मुंह चुराने वाले को इस लायक समझा गया है तो यह रॉयल फाउंडेशन की गंभीरता पर चोट है.

अगर विश्व शांति के लिए इस साल किसी को नोबेल देना ही था तो अपने मनमोहन सिंह से बेहतर भला और कौन है. और कुछ नहीं तो कम से कम मुंबई हमले के बाद कुछ राजनीतिक दलों और कई समाचार संगठनों के संगठित हल्ला-बोल के बावजूद पाकिस्तान पर हमला न करना क्या विश्व शांति में कोई छोटा योगदान है.

पाकिस्तान पर भारत हमला करता तो कुछ और पड़ोसी मित्र का चोला उतारकर मैदान में देर-सबेर नहीं आ जाते, इसकी कोई गारंटी तो थी नहीं. मनमोहन सिंह ने इतनी दूरदर्शिता का परिचय दिया और पड़ोस में पड़े एक महाशक्ति को भारत पर हमला करने का कोई मौका नहीं दिया, ये क्या वैश्विक शांति में छोटा योगदान है.

आज भास्कर में गिरीश निकम जी ने लिखा है कि उनके पास भी विश्व शांति के लिए गजब का विजन है. उन्हें क्यों नहीं दिया जा रहा है नोबेल. ओबामा को भी तो विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्ति दिलाने के विजन के लिए ही पुरस्कार दिया जा रहा है. और तो और, ओबामा ने क्या कहा, वो इस दिशा में लगातार काम करेंगे लेकिन उन्हें नहीं लगता कि उनके राष्ट्रपति रहते, यहां तक कि उनके जिंदा रहते, ऐसा हो पाएगा.

अब ऐसे नोबेल पुरस्कार पाने वाले को चूमने और बधाई देने के अलावा और क्या किया जा सकता है.

Saturday, September 19, 2009

नीतीश के लिए साधु-सुभाष साबित होंगे ललन सिंह

बिहार उप-चुनावः अराजकता और अहंकार के बीच उलझा जनादेश
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए 10 और 15 सितंबर को हुए मतदान के नतीजे आ गए हैं. जिन 18 सीटों पर चुनाव हुए थे, उनमें से 13 सीटों पर राजग का कब्जा था और बाकी बची 5 में से 4 राजद और 1 लोजपा के पास थीं. नतीजा जो आया, उससे इन 18 सीटों पर राजग की कुल हैसियत 5 रह गई है जबकि राजद और लोजपा ने 9 की ताकत पाई है. पिछली स्थिति के मुकाबले राजग को 8 सीटों का नुकसान हो गया है वहीं लालू और रामविलास की जोड़ी ने 4 ज्यादा सीटें हथिया ली. मुनाफे में रही पार्टियों में कांग्रेस, बसपा और एक निर्दलीय भी है जिन लोगों ने बाकी की 4 सीटें जीती हैं.
 
चुनाव का यह नतीजा मेरे विचार से लालू की अराजक सरकार और नीतीश की अहंकारी सरकार के बीच फंस गया जनादेश है. बिहार में जब लालू प्रसाद की सरकार हुआ करती थी तो अराजकता का आलम ये था कि कोई उसे जंगलराज कहता था और कोई नर्क. लेकिन उस दौर में भी लालू इतने घमंडी नहीं हुए थे जितने नीतीश इस छोटे से शासनकाल में ही बन गए.
 
लालू के राज में सड़कें नहीं बनती थीं. नीतीश के राज में जो सड़कें बन गई, लोग कहते हैं कि उनके कई ठेकेदार पेमेंट के लिए भटक रहे हैं. सड़कों को बनाने का काम लंबे समय से गुंडों के हाथ में ही रहा है. पेपर किसी और का, काम कोई और करता है. पेपर के मालिक जान बचाने के लिए लालू के राज से ही ऐसा करते रहे हैं. लालू के समय में सड़कें कम बनती थीं तो ज्यादातर गुंडे फुलटाइम गुंडागर्दी ही करते थे. किसी को उठा लिया, किसी को टपका दिया. ये सब सामान्य बात हो गई थी. लालू के ही समय में बिहार के कई डॉन टाइप के लोग विधायक और सांसद बन गए. नीतीश का राज आया तो सड़कें बनने लगीं. गुंडों को लगा कि नेता बनना है तो पैसा जुटाना होगा और ठेकेदारी करनी होगी. सारे गुंडे सड़क बनाने में जुट गए. छोटा गुंडा एक-दो किलोमीटर की ग्रामीण सड़कों का ठेकेदार हो गया तो बड़ा गुंडा लंबी सड़कों का हिसाब करने लगा. गुंडे ठेकेदार हो गए तो अपराध का ग्राफ धड़ाम से नीचे आ गया. मीडिया में जयकारा होने लगी. नीतीश ने तो कमाल कर दिया.
 
लेकिन जब समय बीता और नीतीश के दम पर ताकतवर हो गए अधिकारी आंशिक या अंतिम भुगतान के लिए ठेकेदारों को टहलाने लगे तो उसका असर सड़क के काम पर और काम करने वाले पर भी पड़ने लगा. इसका अंतिम असर इन चुनावों पर भी देखा जा सकता है. नीतीश के पीछे बड़ी संख्या में लालू राज के सताए गुंडे थे. अब ये गुंडे नीतीश से भी नाखुश हैं. बिना कमाई के आखिर कितने दिन ठेकेदारी चलेगी. अधिकारी किसी की सुनते नहीं हैं क्योंकि नीतीश मानते हैं कि सारे अधिकारी ईमानदार और सारे नेता भ्रष्ट हैं. गुंडों ने गुंडागर्दी से कमाई पूंजी लगा रखी है तो वो तन कर बात भी नहीं कर पाते. पता चला कि अधिकारी के साथ कुछ ज्यादा कर या कह बैठे तो जिंदगी की पूंजी ही फंसी रह जाएगी. इनलोगों के लिए नीतीश की सरकार अशुभ साबित हुई. ये सुधर तो गए लेकिन नीतीश उन्हें सुधारे रखने की गारंटी नहीं कर सके.
 
लालू राज में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर-मरीज कम मिलते थे. प्राइवेट क्लिनिक की सेहत ठीक रही. अब सरकारी अस्पताल में डॉक्टर-मरीज की भीड़ है. प्राइवेट क्लिनिक पहले से भी ज्यादा ठीक चल रहे हैं क्योंकि वहां के डॉक्टर भी एक्स-रे कराने सरकारी अस्पताल भेज देते हैं. सस्ते में काम हो जाता है. बिहार में मार-पीट के आधार पर कई मुकदमे हर रोज होते हैं. इन मुकदमों में अस्पताल में मिलने वाले जख्म प्रतिवेदन यानी मार-कुटाई की गंभीरता के प्रमाण पत्र की थाने और कोर्ट में जरूरत होती है. लालू राज में इसका कोई हिसाब-किताब नहीं था. अपनी पहुंच के हिसाब से लोगों के पास घायल और जख्मी हो जाने का विकल्प मौजूद था. नीतीश ने कहा कि हर अस्पताल का रजिस्टर होगा, उसमें रोज आने वाले मरीजों का नाम होगा, देखने वाले डॉक्टर का नाम होगा. अब हर रोज रजिस्टर भरा जाने लगा. नीतीश ने इन रजिस्टरों के नियमित हिसाब का प्रावधान कर दिया लेकिन इसकी गारंटी नहीं कर सके कि हर रोज यह रजिस्टर जिला या राज्य मुख्यालय तक अपनी रिपोर्ट दर्ज कराए. इसका नतीजा हुआ कि एक या दो दिन पीछे की तारीख में भी अपना नाम लिखवाने में अब लोगों को पांच-पांच अंक में रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं. लालू की सरकार में यह सब काम खिलाने-पिलाने पर भी हो जाता था. इसका व्यापक असर मुकदमेबाज लोगों पर पड़ा है. नीतीश इस असर से कैसे बचे रहते.
 
नीतीश की सरकार के कई मंत्री अपने सचिवों से सीधे मुंह बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते क्योंकि सारे सचिव सीधे मुख्यमंत्री आवास से संपर्क में रहते हैं. जब मंत्रियों की यह हालत है तो विधायकों या सांसदों का क्या चलता-बनता होगा, समझा ही जा सकता है. और, जब अधिकारियों का मान-सम्मान इतना ज्यादा हो जाए तो उनका निरंकुश होना लाजिमी ही है. जो लाल कार्ड पहले सौ-पचास में बन जाता था, वो अब कुछ और महंगा हो गया है. हर जगह अधिकारियों ने अपने काम की रेट बढ़ा ली है. नेताओं की नहीं सुनने का लाइसेंस सरकार ने दे रखा है इसलिए विरोधी दलों के विरोध का भी असर अब इन अधिकारियों पर नहीं होता.
 
सरकारी इश्तहारों के दम पर लालू प्रसाद ने भी मीडिया को अपने हित के लिए खूब इस्तेमाल किया था लेकिन सुना जा रहा है कि नीतीश सरकार तो विरोधियों की खबर तक छपने से तड़प उठती है. पटना के अखबारों का बुरा हाल है. इश्तहार जारी करने वाले अधिकारी को इस बात की गारंटी करनी पड़ती है कि लालटेन या बंगला का हिसाब ठीक रहे. हिसाब गड़बड़ होने पर इश्तहार का हिसाब डगमगा जाता है. ऐसे में मीडिया के मन में भी नीतीश को लेकर जो भाव था वो बदल गया है. कशीदाकारी कम हो गई है क्योंकि उन्हें अब लगने लगा है कि उन्होंने ही इस सरकार की उम्मीदों को इतनी हवा दे दी है कि वो अब आलोचना का झोंका तक सहने को तैयार नहीं है.
 
नीतीश की पार्टी के नेता ललन सिंह को छोड़ दें तो पूरे प्रदेश में कोई विधायक या सांसद कोई काम कराने की बात दावे के साथ नहीं कर सकता. लालू यादव की पार्टी के कई नेता मानते हैं कि साधु यादव या सुभाष यादव लालू प्रसाद की जो दुर्गति नहीं कर सके, ललन सिंह नीतीश की उससे भी बुरी हालत करवाएंगे. बिहार के तमाम बड़े नाम जो अलग-अलग गिरोह के सरदार हैं, ललन सिंह के भरोसेमंद हैं. ललन सिंह मुंगेर से लड़ने जाते हैं तो उसकी तैयारी वो दो साल पहले शुरू कर देते हैं जबकि चुनाव आयोग तीन महीने की ट्रांसफर लिस्ट देखकर अपने को बहुत होशियार समझता है. अहंकारी नीतीश हैं या ललन सिंह, ये अंतर कर पाना कई महीनों से मुश्किल है. बिहार के नेताओं में यह बात खूब होती है कि नीतीश सीएम हैं तो ललन सिंह सुपर सीएम. कौन कहां रहेगा, कौन कहां नहीं रहेगा, ये ललन सिंह ही तय करते हैं. ललन सिंह के राजनीतिक सफर पर गौर करें तो नीतीश सरकार की एक मंत्री के सहयोगी के तौर पर सत्ता का स्वाद चखने वाले ललन सिंह आज ताकत के मामले में उस मंत्री के भी ऊपर हैं. उनकी बराबरी सुशील मोदी से की जा सकती है. बीजेपी वाले सुशील मोदी को अपनी पार्टी से ज्यादा नीतीश की पार्टी लेकिन जेडीयू नहीं, का नेता मानते हैं. लालू के खिलाफ पशुपालन घोटाला का मुकदमा उन्होंने दायर किया, इसके सिवा उनकी ऐसी कौन सी उपलब्धि है जो नीतीश जैसे नेता की पार्टी के वो राज्य में नेता बने रहें. चुनाव प्रबंधन में वो सबके उस्ताद हैं, ये उन्होंने इस लोकसभा चुनाव में साबित कर दिया है.
 
कायदे से तो नीतीश कुमार को खुद की, अपने पूरे मंत्रिमंडल की और बिना मंत्रिमंडल में रहे कई मंत्रियों से ज्यादा ताकतवर ललन सिंह की संपत्ति का ब्यौरा एक बार फिर से सार्वजनिक करना चाहिए. इन सबों की संपत्ति का ब्योरा चुनाव आयोग के पास है लेकिन इनके रहन-सहन का इनकी घोषित संपत्ति से कोई तालमेल नहीं है. लोगों ने शपथपत्र में मारुति लिखा लेकिन चढ़ रहे एंडेवर हैं. किसकी है लैंड क्रूजर, इसका हिसाब भी तो नीतीश जी देना चाहिए. लालू जी जब पटना और उसके बाद दिल्ली से बेदखल हो सकते हैं तो आप इस भ्रम में बिल्कुल न रहें कि बिहार की जनता ने आपके साथ कोई पंद्रह साल का करार किया है. आपकी ईमानदारी की तो आप जानें, आपकी ईमानदारी के नाम पर पूरे राज्य में कई दुकानें चल रही हैं. ललन सिंह जैसे लोगों की संगत में रहेंगे तो वोटरों को आपकी पंगत बदलते भी देर नहीं लगेगी.
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए हुए उप-चुनाव में पार्टियों की औकात- आरजेडी- 6, एलजेपी- 3, जेडीयू- 3, बीजेपी- 2, कांग्रेस- 2, बीएसपी- 1, निर्दलीय- 1
 
इस आधार पर अगर ये कहें कि एनडीए को लोकसभा चुनाव में जो वोट मिले बिहार के लोगों ने लालकृष्ण आडवाणी के नाम पर दिए तो कुछ ज्यादा नहीं होगा. बिहार वाले शायद आडवाणी को पीएम बनाना चाहते थे. नीतीश कुमार तो लिटमस टेस्ट में फेल हो गए क्योंकि आम तौर पर उप-चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की जीत होती रही है. अगर इन 18 सीटों के हिसाब से विधानसभा का गठन होता तो लालू-रामविलास की सरकार तो बन ही जाती. लोकसभा चुनाव के बाद आरजेडी और दूसरे दलों से नेताओं को जेडीयू में आयात करने का जो सिलसिला शुरू हुआ था अब उसके आगे जारी रहने की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं है. आरजेडी छोड़कर गए बड़े नेता अपनी औकात जान गए हैं. वोटरों ने उन्हें नकार दिया. बिहार में एनडीए की सरकार बनने के बाद एनडीए की तरफ दूसरे पाले से आए नेताओं का बड़ा हिस्सा जेडीयू को नसीब हुआ. बड़ी संख्या में आरजेडी और दूसरे दलों के नेताओं के आने से जेडीयू भी वैसा ही हो गया जैसा आरजेडी हुआ करता था.
 
असल में लगता ये है कि आरजेडी की गंदगी जेडीयू में चली आई और अच्छे लोग वहीं रुके रहे. अगले साल जब चुनाव होंगे तो क्या पता, ललन सिंह जैसे हवा-हवाई नेताओं और दूसरे दलों से आए इम्पोर्टेड नेताओं की वजह से नीतीश को विरोधी दल के नेता पद के लिए भी बीजेपी के साथ कुश्ती करनी पड़े. केंद्र में बिना कांग्रेस की मदद किए या लिए आने से तो नीतीश कुमार दूर ही रहे. ऐसे में अगर बिहार में भी वोटरों ने तीर को तोड़ दिया तो मीडिया के एक वर्ग में मिस्टर क्लिन के रूप में शोहरत बटोर रहे बेचारे नीतीश निशाना लगाएंगे कहां.
 
(संशोधित कॉपी- पहले की कॉपी में एनडीए को 5 की बजाय 6 सीट दे दी गई थी जबकि राजद और लोजपा को 9 की जगह पर 8 ही सीटें दी गई थीं. उस समय के नतीजे इसी तरह आ रहे थे. मौजूदा कॉपी चुनाव आयोग द्वारा जारी विजेता सूची के आधार पर है.)

Saturday, August 15, 2009

कितना बड़ा चमचा हूं मैं

चमचा होने में कोई बुराई है क्या. पिछले हफ्ते एक साइट पर चल रही टिप्पणियों के घमासान में मैंने यह लिखा था. लेकिन उसके बाद से ही यह सोच रहा था कि चमचागीरी क्या है और चमचा कैसे बना जाता है. तो अपने इस ब्लॉग पर एक साल से भी ज्यादा समय के बाद लिख रहे पहले पोस्ट पर चमचागीरी पर अपनी समझदारी की बात करते हैं.
 
स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई-लिखाई के वक्त से ही आपके साथ चमचागीरी नाम का यह हसीन हादसा हो सकता है. किसी शिक्षक का विशेष अनुराग आपको उनका चमचा बना सकता है. मैट्रिक, इंटर या बीए या उससे ऊपर की तमाम पीएचडी और डी लिट् जैसे उपाधि आप अर्जित ज्ञान के दम पर पाते हैं. लेकिन इस उपाधि के लिए अर्जित ज्ञान काम नहीं आता. इसके लिए जिला, प्रांत या राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रतियोगिता नहीं होती कि किसी को जिला, प्रांत या देश का सबसे बड़ा चमचा ठहराया जा सके. पढ़ाई-लिखाई में जो मेहनत करनी होती है, उस लिहाज से देखें तो चमचागीरी बहुत आसान विधा है और कई जगह इसे अपने ज्ञान के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल में लाया भी जा सकता है.
 
चमचा बनने के लिए अपने स्तर से बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं होती. आप विद्यार्थी हैं तो अपने किसी शिक्षक की ज्यादा तारीफ शुरू कर दीजिए. अगर कोई सहपाठी कहता है कि उनकी क्लास में उसके दिमाग की दही बन जाती है और आप उससे मीठी या खट्टी बहस करते हैं और यह साबित करना चाहते हैं कि आपके पसंद के गुरुजी जबर्दस्त पढ़ाते हैं तो आप चमचा बन गए मानिए. इसके लिए आपके गुरु और आपके बीच किसी इकरारनामे की जरूरत नहीं है.
 
पढ़ाई के बाद नौकरी का काम शुरू होता है. यहां अपने से वरिष्ठ किसी भी अधिकारी की तारीफ कीजिए या उनके विरोधियों की बातों में चाय की चुस्कियों के दौरान हां की बजाय ना में बात करना शुरू कर दीजिए, चमचा बन गए आप. अगर ऐसे में आपका समयवद्ध वेतन बढ़ गया या प्रोमोशन हो गया तो अंधों के हाथ बटेर ही लग गई समझो. फिर तो आपसे जले-भुने लोग घूम-घूम कर गाएंगे कि चमचागीरी भी कोई चीज होती है और उसका इनाम तो मिलना ही चाहिए.
 
सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भी चमचागीरी की उपाधि हासिल करने के लिए यही रामवाण है. उम्र, पद या प्रतिष्ठा में अपने से बड़े किसी भी शख्स की तारीफ कीजिए और आलोचना का जवाब दीजिए, चमजागीरी का खिताब हासिल कर लेंगे.
 
मेरे विचार से अगर कोई आदमी यह कहता है कि वह किसी का चमचा नहीं है या नहीं रहा और न रहेगा तो वह सरासर झूठ बोल रहा है. मैं उसे चुनौती देता हूं कि वो अपना नाम, पता और स्कूल या कंपनी का नाम बताए, उसकी चमचागीरी का प्रमाण सिर्फ उसे मेल करके बता दूंगा. क्योंकि मेरा मानना है कि चमचागीरी प्राकृतिक चीज है. इस शब्द को हेय दृष्टि से देखने की जरूरत नहीं है. यह कोई प्लेग या हैजा नहीं है कि चमचागीरी सुनकर छी-छी बोला जाए या चमचा लोगों से दूर रहा जाए. इस प्राकृतिक गुण के लिहाज से मैं एक-दो दर्जन से ज्यादा लोगों का चमचा तो हूं ही. गिनती में कुछ कमी हो सकती है.
 
मेरी तो मनमोहन सिंह सरकार से मांग है कि देश में एक राष्ट्रीय चमचा आयोग का गठन होना चाहिए और उसमें सोनिया गांधी के आस-पास रहकर विकसित हो रहे नेताओं को सदस्य बनाना चाहिए. इस आयोग को राष्ट्रीय स्तर पर हर साल एक परीक्षा का आयोजन करना चाहिए और हर साल 15 अगस्त के दिन देश भर से चुने गए सौ चमचों को सम्मानित करना चाहिए. चमचागीरी को सम्मान दिलाने की लड़ाई शुरू करने का समय आ गया है क्योंकि चमचा तो हममें से हर कोई किसी न किसी का है. जो मेरी राय से इत्तेफाक नहीं रखते वो यह कबूल करने डरते हैं कि वो भी चमचा हैं.