Thursday, February 21, 2008

मैडम सर से बड़ी होती हैं...

पापा भगवानपुर के बीडीओ ऑफिस में थे. मैं चौथी-पांचवीं में रहा होगा. घर पर ट्यूशन पढ़ाने एक गुरुजी आते थे. जहां तक याद है, नाम अर्जुन सर था.

 

घर पर करने के लिए दिए गए काम पूरे न करने या गलतियां करने पर वे मुठ्ठियां बंद करवाकर उंगलियों के जड़ पर बाहर से चोट करते थे.

 

हमारे सरकारी क्वार्टर से एक किलोमीटर की दूरी पर बलान नदी बहती थी और उसके पार एक गांव था, दामोदरपुर. सर वहीं के रहने वाले थे.

 

ट्यूशन के दौरान ही सर की शादी हुई. शादी के कुछ दिन बाद जब वे फिर से पढ़ाने आए तो एक दिन मुझे और मेरी बहन को अपने घर ले गए, मैडम से मिलवाने.

 

पहले साईकिल से नदी के घाट तक, वहां से नाव और नाव से उतरने के बाद फिर साईकिल से हम तीनों दामोदरपुर पहुंचे.

 

लड्डू खाए, दही खाई. दही के सामने सब बेकार. सारी चीजें सर ने ही लाकर परोसी. पानी भी.

 

 
 
आगे मेरी डायरी पर पढ़ें...

Sunday, February 17, 2008

अपने स्तर पर ईमानदार रहो...

सोचा था कि वेलेंटाइन डे के बाद अपनी निजी डायरी लिखने की शुरुआत करूंगा. बाबा वेलेंटाइन की जयंती बीत चुकी है. उस दिन मैंने अपने उन दो-चार मित्रों को शुभकामनाएं दी जिनके वेलेंटाइन हैं.

लोगों ने जब संदेश के बदले धन्यवाद कहा तो लगा कि बस उनके बारात से ही लौटा हूं. वैसे, इनमें कई की बारात जाना ही है.

जिन दोस्तों के झगड़े चल रहे हैं, उनको बधाई नहीं दी. क्या पता, संदेश जले पर नमक जैसा होता. झगड़े नियमित अंतराल पर होते रहते हैं. उम्मीद है कि जिनको इस साल बधाई नहीं दी, अगले साल उन्हीं को दे पाउंगा.

यह समझदारी पिछले साल ही आई है.

दिवाली पर बेगूसराय के लोगों को मैं पर्व की बधाई दे रहा था. मेरी बदनसीबी, जिन लोगों को मेरे संदेश मिल रहे थे वे सारे उस वक्त श्मशान घाट पर एक दाह संस्कार में थे. मुझे समय पर खबर मिली होती तो शायद मैं भी उस वक्त गंगा किनारे उन लोगों के साथ होता.

मेरे शहर के बड़े और ईमानदार वकील राम नरेश शर्मा जी की हत्या कर दी गई थी. बड़े अपराधियों के खिलाफ सरकार की ओर से वे कोर्ट में कई मुकदमे लड़ रहे थे. राजनीतिक जीवन में भी वे बड़े कद के ईमानदार लोग थे. समाजवादी आंदोलन से जुड़े रहे।

उनकी हत्या की जांच अब राज्य की अपराध अन्वेषण विभाग, सीआईडी कर रही है।

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Wednesday, February 13, 2008

आडवाणी जी, आप बहुत अच्छे हैं...

श्रद्धेय आडवाणी जी
नमस्कार
 
देर से ही लेकिन उत्तर भारत के लोगों को मुंबई से धकियाने की धमकी देने वालों को आपने जिस तरह से हड़काया है, मेरा वोट आपने पक्का कर लिया है.
 
राज ठाकरे के बड़बोले बयानों के बाद आपकी चुप्पी के कारण उद्धव ठाकरे का मन भी मचलने लगा था लेकिन समय रहते आपके बयान से सब साफ हो गया है.
 
अब बाल ठाकरे साहब को गठबंधन में रहना है तो गठबंधन के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बातों का सम्मान तो करना ही होगा.
 
 
शुक्रिया...

Monday, February 4, 2008

बिहार के अनुभव लिखेंगी घुघूती जी...

घुघूती जी को मैंने एक पत्र लिखा था.  उनकी अनुमति से उसे नीचे छाप रहा हूँ.  उन्होंने
कहा है कि बिहार में बिताए अपने दिनों के बारे में कुछ साझा करेंगी.  मुझे
तो उन लेखों का इंतजार है,  आपको भी होगा....!
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नमस्कार

 

मेरी चिट्ठी पर आपने बधाई के साथ एक सवाल भी दर्ज किया था.
 
जवाब देने में काफी देर कर दी लेकिन मेरे ब्लॉग को देखने से भी आपको इस बात का अंदाजा लग गया होगा कि मैं शौकिया ब्लॉगर हूँ. जब फुर्सत होती है या कुछ अनपच होने लगता है, तभी लिखता हूँ, अचानक से. कई बार तो नौकरी और बाकी व्यस्तताओं के कारण योजना बनाकर भी नहीं लिख पाता.

 

वैसे, ब्लॉग पर लिखने वालों में सबसे ज्यादा किसी से प्रभावित हुआ हूँ तो निःसंदेह वो आप हैं. यह कोई ऐसी तारीफ नहीं है जो मैं बस आपको लिखने के लिए कर रहा हूँ.

 

कविताएँ मेरी समझ में नहीं आती. छायावादी कविताएँ तो मुझे पागलपन से भरी बातें लगती हैं. सीधा-सादा आदमी हूँ और सीधी बात ही करता और समझता हूँ.

 

आप मेरी माँ से भी ज्यादा उम्र की हैं फिर भी ये कहना चाहता हूँ कि शादी और पिताजी की बीमारी वाली आपकी कहानी बहुत प्रेरक लगी और यही वजह है कि मैंने रीतेश की डायरी नाम से एक दूसरा ब्लॉग बनाया है. इस पर आपकी नकल करना है. कोशिश रहेगी कि आपकी तरह ही ईमानदार रहकर लिख सकूँ.

 

आपने सवाल किया कि बिहार के लोग बिहार में कुछ कर नहीं पाते लेकिन बाहर वही लोग अच्छा करते हैं... आखिर क्यों...?

 

आपके सवाल में ही मेरा जवाब छुपा है.

 

कुछ करने का दायरा तो पहले ही बिहार में सीमित है.

 

मसलन, खेतीबाड़ी के अलावा कुछ छोटे-मोटे कारखाने हैं.

 

जो खान-खनिज था, विभाजन के साथ पड़ोसी प्रांत में चला गया. इसलिए इस राज्य में न तो लक्ष्मी नारायण मित्तल की दिलचस्पी है और न ही रतन टाटा की.

 

बाकी बची सरकारी नौकरी. लंबे समय तक तो नौकरी देने की कोशिश भी नहीं की गई. हाल में नीतीश कुमार ने कम खर्च में काम कराने की कॉरपोरेट संस्कृति से नाता जोड़ा है. पांच से छह हजार में बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षक बनाया गया है.

 

मध्य, प्राथमिक और उच्च विद्यालय में पढ़ाने वाले ये लोग उन शिक्षकों की जगह पर रखे गए हैं जो पद 15-20 हजार की पगार पाने वाले गुरुजी के रिटायर होने के बाद से खाली चल रहे थे.

 

केंद्र सरकार ने भी बेरोजगारों के गुस्से का गुबार निकालने के लिए सर्व शिक्षा अभियान चला रखा है. कम पैसे पर शिक्षक रखे जा रहे हैं. जो इससे समझौता नहीं कर सकते, वे डीएवी या दूसरे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिए बिहार छोड़ देते हैं.

 

जितने पैसे में दिल्ली में एक आदमी नहीं चल सकता, बिहार में परिवार चलाया जा रहा है.

 

पटना, मुजफ्फरपुर, गया, भागलपुर जैसे बड़े शहरों में कुछ निजी कंपनियों के छिटपुट कारोबार हैं. निजी नौकरी का बड़ा हिस्सा इन शहरों में ही है.

 

यह भी बताना भी चाहता हूँ कि बिहार के लोग सिर्फ दिल्ली, पंजाब, हरियाणा या महाराष्ट्र ही नहीं जाते हैं. बिहार के अंदर भी बेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर, लखीसराय जैसे जिलों से हजारों लोग पटना का रुख करते हैं.

 

बिहार से निकलने वाले लोगों में बड़ी संख्या तो निर्माण और खेती में मजदूरी करने वाले लोगों की है. सरकार उनके लिए रोजगार की गारंटी नहीं कर पाती. खेती में घाटा-दर-घाटा से उब चुके किसानों के लिए मजदूर रखना, घाटे को बढ़ाने जैसा होता जा रहा है. विज्ञान ने खेतिहर मजदूरों की जरूरत को अलग से खत्म किया है.

 

कोई घर छोड़ने के वक्त ये नहीं देखता कि वो दिल्ली जा रहा है या पटना. वो बस ये देखता है कि उसे कुछ काम मिलेगा कि नहीं. वह यह देखता है कि उस काम के बदले में जो पैसा मिलेगा, उससे वह घर-परिवार की न्यूनतम जरूरतों को पूरा कर सकेगा कि नहीं.

 

मेरी ही बात लीजिए न.

 

वहां दैनिक जागरण में काम करता था. छोड़ने तक नियुक्ति पत्र नहीं मिली. पाँच साल से ज्यादा नौकरी की तरह काम करने के बावजूद जब दिल्ली आ रहा था तो पगार पाँच हजार से कुछ कम थी. शुरुआत तेरह सौ से की थी. आज दिल्ली में तकरीबन 20 हजार से ऊपर कमा लेता हूँ.

 

बिहार में एक तो तीन-चार अखबार हैं. ऊपर से जमे हुए पानी की तरह जमे लोग हैं. बाजार भी जम गया है. नए लोग क्या करें, कहाँ करें. ऐसे में पत्रकारिता करनी थी और पेशे की तरह करनी थी तो दिल्ली आने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं था.

 

वहाँ रहता तो पत्रकारिता ही छूट गई होती. समय के साथ जब जिम्मेदारी बढ़ती है तो शौकिया काम अपने-आप कमता चला जाता है. फिर तो वही काम भाता-सुहाता है जो खुद के अलावा निर्भर लोगों की आकांक्षा को पूरा कर सके.

 

अब देखिए न, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के भी बहुत सारे लोग दिल्ली में पत्रकारिता करते हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि बिहार के लोग ही बाहर नौकरी करते हैं और जब बाहर जाते हैं, तभी अच्छा करते हैं.

 

आदमी अपने आपको बहुत ज्यादा नहीं बदल सकता और काम भी. जब किसी को करने लायक काम ही बिहार से बाहर मिले तो स्वाभाविक है कि वह आदमी नतीजा भी अपने प्रांत से बाहर ही देगा.

 

कल को पटना से 15-20 अखबार निकलने लगें, 5-10 चैनल शुरू हो जाएँ, कॉल सेंटर खुल जाएँ, ऑनलाइन पोर्टलों की कतार लग जाए तो कोई क्यों अपने घर से एक हजार किलोमीटर दूर दिल्ली में काम करने जाएगा.

 

फिर तो मैं भी अपने कई दोस्तों के साथ जय बिहार कहकर पटना के लिए संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस या भागलपुर के लिए विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़ लूँगा.

 

लेकिन ब्लॉगिंग नहीं छूटेगी. क्योंकि ये जो कीड़ा है और ऐसी जितनी भी बीमारियां अंदर मैं बसी हैं, वो इस कारण नहीं चली जातीं कि पांव दिल्ली में है या दरभंगा में

 

अगर आप कभी बिहार गईं हों तो आपके ब्लॉग पर उस अनुभव के बारे में कुछ पढ़ने की इच्छा है.

  

धन्यवाद

रीतेश

Sunday, February 3, 2008

आडवाणी जीः ठाकरे का हाथ या यूपी-बिहार का साथ...?

चुप क्यों हो आडवाणी जी....

लाल किशनचंद आडवाणी जी,
प्रणाम

नेताओं से चकमक आपकी पूरी भारतीय जनता पार्टी में बस आप ही मेरी पसंद के नेता हैं. सारे देश को अटल जी पसंद हैं, बेहद पसंद हैं. मुझे नहीं.


आप जब कट्टर थे, तब भी पसंद थे. अब उदार हो गए हैं, तब भी पसंद हैं. पसंद पार्टियों और स्टैंड की तरह बदली नहीं जा सकतीं.

नेता होने से ज्यादा साहस, गंभीरता और धैर्य की जरूरत होती है समर्थक होने में. नेताजी बदल जाते हैं, विचार बदल लेते हैं लेकिन समर्थक को साथ बने रहना होता है. नेता के हर कदम और हर बयान को सही ठहराना होता है.

संजय निरूपम शिवसेना में थे तो मुसीबत कम थी. जब से कांग्रेस में गए हैं, पूर्वांचल वालों पर पहाड़ टूट पड़ा है. महाराष्ट्र में जितने सेनानामी संगठन हैं, सचमुच बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को देखकर सैनिकों जैसी बातें करने लगे हैं.

असम में हिंदीभाषियों को मारने वालों और महाराष्ट्र में धमकाने वालों में बहुत अंतर नहीं रह गया है आडवाणी जी.

आपको प्रधानमंत्री बनना है. इसलिए नहीं कि देश को आपकी बहुत जरूरत है. इस देश को अफसर चला रहे हैं. नेता कोई हो, देश चल जाएगा. भरोसा न हो तो अपने किसी जिलाध्यक्ष को प्रधानमंत्री बनाकर देख लीजिए. देश पाँच साल बाद भी ऐसा ही रहेगा.

आपको प्रधानमंत्री इसलिए बनना है ताकि इन निकम्मे प्रधानमंत्री महोदय से देश को मुक्ति मिले. राज्यसभा और जनपथ वाले प्रधानमंत्री जी से मुक्ति दिला दीजिए, प्लीज़.

और, अपनी सरकार में आप राज्यसभा से किसी को मंत्री भी मत बनाना. पता नहीं ये कहां-कहां से पढ़कर आते हैं. एक फैसला ऐसा नहीं करते जो वोट देने वाले आम लोगों के हित में हो. कभी जाति देख लेते हैं, कभी धर्म देख लेते हैं. एक तो टीवी और अखबारों में छपने के अलावा कुछ करते नहीं, और जब करते हैं तो तीन-पांच कर देते हैं.

वाम प्रशंसक हूं लेकिन वोट आपको ही दूंगा. सच्ची में दूंगा. वामपंथियों ने तो कांग्रेस से भी ज्यादा नर्क कर रखा है. लोगों को बेवकूफ बनाने की भी कोई सीमा होती है कि नहीं. रोज गाली भी देते हैं और जिंदा रहने की गोली भी दे आते हैं.

खैर, मैं तो यही सोचकर कांप रहा हूँ कि सरकार में रहते मोदी के सैनिकों ने मजे से जो काम कर दिया था वह तो कांग्रेसी इंदिरा जी की हत्या के बाद भी नहीं कर पाए थे. अभी तक उस पार्टी में कोई साहसी नहीं हुआ जो यह कह सके कि 84 में जो किया था, वह ठीक था.

आपके बाद यह साहस और साफगोई मोदी जी में आई है. इसलिए देश के लोग आपके बाद उन्हें ही प्रधानमंत्री मानकर चलने लगे हैं. जोशी जी से बचकर रहिएगा तो कोई दिक्कत भी नहीं होगी.

लेकिन आप ये अभी बता दीजिए कि अगले साल जब आप गठबंधन दलों के नेता के तौर पर प्रधानमंत्री बनेंगे और रेसकोर्स में रहने जाएंगे तो ये सेना वाले आपके गठबंधन में तो नहीं होंगे न.

ये जान लेना इसलिए जरूरी है कि उसके बाद इनकी हरकतों पर आप तो कुछ करेंगे नहीं तो कम से कम महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार बचा ली जाए. वैसे भी विधि-व्यवस्था का मामला तो राज्य का ही काम है.

देश के लोगों का जाति या धर्म के नाम पर भड़कने और उसके भयावह नतीज़ों, दोनों के आप प्रत्यक्ष गवाह रहे हैं.

आपकी पार्टी और उसके बगलबच्चों में पहले से ही भारतीय संविधान को बिना पढ़े और दिल में उतारे कई लोग नेता बन चुके हैं. अब गठबंधन में ऐसे नेताओं को नहीं जुटा लीजिएगा. अर्जी बस यही है.

वोट तो आपको बिहार और उत्तर प्रदेश से भी लेना है. हम देना भी चाहते हैं. आपको बता दें कि हम आम चुनाव के इंतजार में बैठे हैं. लेकिन आप किसी दोयम नेता या त्रियम पार्टी से हाथ न मिला लीजिएगा जो कहते हैं कि बिहार के लोग बिहार में रहें, उत्तर प्रदेश वाले अपने राज्य में.

ऐसे राज्यप्रेमी के साथ आप चले जाएंगे तो हम देशप्रेमी आपके साथ भला कैसे रह पाएंगे. और आप उनका मनोबल बढ़ाएंगे तो क्या पता कल आपको भी कह दें कि गुजरात वाले भी भाग जाएं.

आप तो गुजरात के हैं न. मोदी जी के वोटर आपको वोट दे ही देंगे. लेकिन बिहार और उत्तर प्रदेश वाले आपके सहयोगी दलों की गाली और भभकी सुनने के लिए तो वोट देंगे नहीं.

हमारे पास वैसे भी लालू प्रसाद, राम विलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती हैं. अपना-अपना राज्य, अपना-अपना नेता. हम इनसे काम चला लेंगे. आप अपनी सोच लीजिए. प्रधानमंत्री आपको बनना है. अगला चुनाव छह साल बाद होगा. उसे किसने देखा है.

राज ठाकरे के बयान पर केंद्र सरकार चुप है. कोर्ट में शनिवार और रविवार को छुट्टी रहती है. सोमवार को देखते हैं कि कोई जनहित याचिका आती है या नहीं. नहीं आती है तो कोई न्यायालय संज्ञान लेता भी है या नहीं.

सब चुप रहें तो रहें, आप मत चुप मत होना. आपको प्रधानमंत्री बनना है. हमें आपको वोट देना है.

अगर देश के किसी भी प्रांत के लोगों को गाली दी जाती है और आपको फर्क नहीं पड़ता है तो हमें भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि प्रधानमंत्री कौन बनता है. वैसे भी, बिहार और उत्तर प्रदेश वाले मिल जाएं तो प्रधानमंत्री तो बना ही लेंगे.