Monday, February 4, 2008

बिहार के अनुभव लिखेंगी घुघूती जी...

घुघूती जी को मैंने एक पत्र लिखा था.  उनकी अनुमति से उसे नीचे छाप रहा हूँ.  उन्होंने
कहा है कि बिहार में बिताए अपने दिनों के बारे में कुछ साझा करेंगी.  मुझे
तो उन लेखों का इंतजार है,  आपको भी होगा....!
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नमस्कार

 

मेरी चिट्ठी पर आपने बधाई के साथ एक सवाल भी दर्ज किया था.
 
जवाब देने में काफी देर कर दी लेकिन मेरे ब्लॉग को देखने से भी आपको इस बात का अंदाजा लग गया होगा कि मैं शौकिया ब्लॉगर हूँ. जब फुर्सत होती है या कुछ अनपच होने लगता है, तभी लिखता हूँ, अचानक से. कई बार तो नौकरी और बाकी व्यस्तताओं के कारण योजना बनाकर भी नहीं लिख पाता.

 

वैसे, ब्लॉग पर लिखने वालों में सबसे ज्यादा किसी से प्रभावित हुआ हूँ तो निःसंदेह वो आप हैं. यह कोई ऐसी तारीफ नहीं है जो मैं बस आपको लिखने के लिए कर रहा हूँ.

 

कविताएँ मेरी समझ में नहीं आती. छायावादी कविताएँ तो मुझे पागलपन से भरी बातें लगती हैं. सीधा-सादा आदमी हूँ और सीधी बात ही करता और समझता हूँ.

 

आप मेरी माँ से भी ज्यादा उम्र की हैं फिर भी ये कहना चाहता हूँ कि शादी और पिताजी की बीमारी वाली आपकी कहानी बहुत प्रेरक लगी और यही वजह है कि मैंने रीतेश की डायरी नाम से एक दूसरा ब्लॉग बनाया है. इस पर आपकी नकल करना है. कोशिश रहेगी कि आपकी तरह ही ईमानदार रहकर लिख सकूँ.

 

आपने सवाल किया कि बिहार के लोग बिहार में कुछ कर नहीं पाते लेकिन बाहर वही लोग अच्छा करते हैं... आखिर क्यों...?

 

आपके सवाल में ही मेरा जवाब छुपा है.

 

कुछ करने का दायरा तो पहले ही बिहार में सीमित है.

 

मसलन, खेतीबाड़ी के अलावा कुछ छोटे-मोटे कारखाने हैं.

 

जो खान-खनिज था, विभाजन के साथ पड़ोसी प्रांत में चला गया. इसलिए इस राज्य में न तो लक्ष्मी नारायण मित्तल की दिलचस्पी है और न ही रतन टाटा की.

 

बाकी बची सरकारी नौकरी. लंबे समय तक तो नौकरी देने की कोशिश भी नहीं की गई. हाल में नीतीश कुमार ने कम खर्च में काम कराने की कॉरपोरेट संस्कृति से नाता जोड़ा है. पांच से छह हजार में बड़ी संख्या में लोगों को शिक्षक बनाया गया है.

 

मध्य, प्राथमिक और उच्च विद्यालय में पढ़ाने वाले ये लोग उन शिक्षकों की जगह पर रखे गए हैं जो पद 15-20 हजार की पगार पाने वाले गुरुजी के रिटायर होने के बाद से खाली चल रहे थे.

 

केंद्र सरकार ने भी बेरोजगारों के गुस्से का गुबार निकालने के लिए सर्व शिक्षा अभियान चला रखा है. कम पैसे पर शिक्षक रखे जा रहे हैं. जो इससे समझौता नहीं कर सकते, वे डीएवी या दूसरे निजी स्कूलों में पढ़ाने के लिए बिहार छोड़ देते हैं.

 

जितने पैसे में दिल्ली में एक आदमी नहीं चल सकता, बिहार में परिवार चलाया जा रहा है.

 

पटना, मुजफ्फरपुर, गया, भागलपुर जैसे बड़े शहरों में कुछ निजी कंपनियों के छिटपुट कारोबार हैं. निजी नौकरी का बड़ा हिस्सा इन शहरों में ही है.

 

यह भी बताना भी चाहता हूँ कि बिहार के लोग सिर्फ दिल्ली, पंजाब, हरियाणा या महाराष्ट्र ही नहीं जाते हैं. बिहार के अंदर भी बेगूसराय, खगड़िया, समस्तीपुर, लखीसराय जैसे जिलों से हजारों लोग पटना का रुख करते हैं.

 

बिहार से निकलने वाले लोगों में बड़ी संख्या तो निर्माण और खेती में मजदूरी करने वाले लोगों की है. सरकार उनके लिए रोजगार की गारंटी नहीं कर पाती. खेती में घाटा-दर-घाटा से उब चुके किसानों के लिए मजदूर रखना, घाटे को बढ़ाने जैसा होता जा रहा है. विज्ञान ने खेतिहर मजदूरों की जरूरत को अलग से खत्म किया है.

 

कोई घर छोड़ने के वक्त ये नहीं देखता कि वो दिल्ली जा रहा है या पटना. वो बस ये देखता है कि उसे कुछ काम मिलेगा कि नहीं. वह यह देखता है कि उस काम के बदले में जो पैसा मिलेगा, उससे वह घर-परिवार की न्यूनतम जरूरतों को पूरा कर सकेगा कि नहीं.

 

मेरी ही बात लीजिए न.

 

वहां दैनिक जागरण में काम करता था. छोड़ने तक नियुक्ति पत्र नहीं मिली. पाँच साल से ज्यादा नौकरी की तरह काम करने के बावजूद जब दिल्ली आ रहा था तो पगार पाँच हजार से कुछ कम थी. शुरुआत तेरह सौ से की थी. आज दिल्ली में तकरीबन 20 हजार से ऊपर कमा लेता हूँ.

 

बिहार में एक तो तीन-चार अखबार हैं. ऊपर से जमे हुए पानी की तरह जमे लोग हैं. बाजार भी जम गया है. नए लोग क्या करें, कहाँ करें. ऐसे में पत्रकारिता करनी थी और पेशे की तरह करनी थी तो दिल्ली आने के अलावा और कोई उपाय भी तो नहीं था.

 

वहाँ रहता तो पत्रकारिता ही छूट गई होती. समय के साथ जब जिम्मेदारी बढ़ती है तो शौकिया काम अपने-आप कमता चला जाता है. फिर तो वही काम भाता-सुहाता है जो खुद के अलावा निर्भर लोगों की आकांक्षा को पूरा कर सके.

 

अब देखिए न, उत्तर प्रदेश और उत्तरांचल के भी बहुत सारे लोग दिल्ली में पत्रकारिता करते हैं. इसलिए ऐसा नहीं है कि बिहार के लोग ही बाहर नौकरी करते हैं और जब बाहर जाते हैं, तभी अच्छा करते हैं.

 

आदमी अपने आपको बहुत ज्यादा नहीं बदल सकता और काम भी. जब किसी को करने लायक काम ही बिहार से बाहर मिले तो स्वाभाविक है कि वह आदमी नतीजा भी अपने प्रांत से बाहर ही देगा.

 

कल को पटना से 15-20 अखबार निकलने लगें, 5-10 चैनल शुरू हो जाएँ, कॉल सेंटर खुल जाएँ, ऑनलाइन पोर्टलों की कतार लग जाए तो कोई क्यों अपने घर से एक हजार किलोमीटर दूर दिल्ली में काम करने जाएगा.

 

फिर तो मैं भी अपने कई दोस्तों के साथ जय बिहार कहकर पटना के लिए संपूर्ण क्रांति एक्सप्रेस या भागलपुर के लिए विक्रमशिला एक्सप्रेस पकड़ लूँगा.

 

लेकिन ब्लॉगिंग नहीं छूटेगी. क्योंकि ये जो कीड़ा है और ऐसी जितनी भी बीमारियां अंदर मैं बसी हैं, वो इस कारण नहीं चली जातीं कि पांव दिल्ली में है या दरभंगा में

 

अगर आप कभी बिहार गईं हों तो आपके ब्लॉग पर उस अनुभव के बारे में कुछ पढ़ने की इच्छा है.

  

धन्यवाद

रीतेश

1 comment:

अफ़लातून said...

साथी , जब आप नेट पर पढे लेखोँ का सन्दर्भ देते हैँ तब उनकी कडी (हाैपर लिँक) भी देँ |