Friday, December 30, 2011

एक अन्नाभक्त का एकमात्र सवाल

अन्ना. बाकी सब तो ठीक है लेकिन आपसे सवाल पूछने से पहले ये बताना जरूरी है कि मेरे पास तीन बैंक खाते हैं जिनमें 200, 600 और 34000 रुपए जमा हैं. बटुए में हजार के करीब होगा. ये बताना अब इसलिए जरूरी है क्योंकि अन्ना के जो लोग उनके खिलाफ बोलते हैं उन्हें मैं भी कांग्रेसी पैसे से खरीदा गया आदमी मानता और बताता रहा हूं. एक घर है जो बैंक और शुभचिंतकों से मिला उपहार है. जो धन है, सफेद है. काला कुछ नहीं है सिवा रंग के. मेरे सवाल का जवाब कुछ भी हो, हर हालत में मैं आपके साथ हूं और साथ ही रहूंगा क्योंकि मुझे इस बात का आभास है कि आप कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट और खुदरे दलों के किन मक्कारों से जूझ रहे हैं. फिर भी ये बताना जरूरी है कि रणनीतिकार किस तरह से आपको चूना लगा रहे हैं.

सबसे पहले एक बात जो सवाल नहीं है. 11 दिसंबर के एक दिन के अनशन की कोई जरूरत बनती थी नहीं जब संसद सत्र चल रहा है और आपने 27 दिसंबर से आमरण अनशन की धमकी दे ही रखी है. बावजूद अगर अनशन करना ही था और अलग-अलग दलों के नेताओं को मंच देकर लोकपाल पर बहस करवानी थी तो ये मुंबई के आजाद मैदान या लखनऊ के किसी स्टेडियम में ज्यादा बेहतर तरीके से हो सकता था. आपका दिल्ली आना बहुत जरूरी नहीं था. आंदोलन को फैलाने के भी तो उपाय होंगे या नहीं. खैर, आप बड़े हैं, ज्यादा अनुभवी हैं. कुछ सोच-समझकर ही आए होंगे.

लेकिन मैं जिस बात से परेशान हूं और यही मेरा सवाल है कि आपने जब 27 दिसंबर से आमरण अनशन पर बैठने की चेतावनी इस अहंकारी सरकार को दे ही रखी है तो फिर ये कहने का क्या औचित्य है कि आप अगले साल होने वाले 5 राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करने जाएंगे. मेरा सवाल नीतिगत और व्यवहारिक है.

आप जब 27 दिसंबर को आमरण अनशन पर बैठ जाएंगे तो तय है कि उठेंगे तभी जब सरकार आपकी बात मान लेगी या फिर रामलीला मैदान में ही प्राण त्याग देंगे. तो ऐसे में आप कैसे जाएंगे प्रचार करने जब आप बचेंगे ही नहीं. और अगर आप अनशन तोड़ते हैं तो स्वभाविक है कि सरकारी मान-मनौव्वल के बाद ही उठेंगे जो समझौते जैसा होगा, सरकार के झुकने जैसा होगा तो फिर प्रचार की जरूरत ही क्या रह जाएगी.

बस मुझे आप यही समझा दीजिए कि क्या आपको पता है कि अनशन के बाद भी ये सरकार नहीं झुकने जा रही या फिर आपने तय कर लिया है कि सरकार लोकपाल पर आपकी बात माने या ना माने, आप कांग्रेस के खिलाफ प्रचार करेंगे.

और अगर आप प्रचार करने जाएंगे तो अनशन पर से उठेंगे कैसे, कौन उठाएगा आपको, किस बहाने से आप तोड़ेंगे अनशन. अगर जन लोकपाल से कम पर अनशन टूटता है तो ये हमारे साथ धोखा होगा और सरकार के मानने के बाद भी गए तो ये भी धोखा होगा.

कुछ लोग कहेंगे कि अन्ना ने तो ये कहा है कि अगर सरकार आमरण अनशन से नहीं मानी तो हम प्रचार करेंगे लेकिन भाई साहब अन्ना ने तो कार्यक्रम की रूपरेखा बता दी है. पहले आमरण अनशन करेंगे और तब भी सरकार नहीं मानी तो प्रचार करेंगे. आमरण अनशन से उठेंगे तब न प्रचार करेंगे.

बस यही मुझे कोई समझा दे कि अन्ना आमरण अनशन से बिना मांग पूरी हुए कैसे उठेंगे. अन्ना की नीयत पर कोई सवाल नहीं है. सवाल रणनीति बनाने वालों पर है. जब आप आमरण अनशन पर जा रहे हो तो आगे के किसी कार्यक्रम की घोषणा हास्यास्पद है. आपको कैसे मालूम कि सरकार नहीं मानेगी. अगर नहीं मानेगी तो आमरण अनशन करने वाला अनशन तोड़कर कैसे चुनाव में प्रचार करेगा.


प्रतिरोध पर 12 दिसंबर, 2011 को प्रकाशित

ये तो पहली झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है

मंडल आंदोलन के बाद के दिनों का ये नारा शायद हम भूले नहीं होंगे. ये तो पहली झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है. पहली झांकी अयोध्या थी जहां हिन्दू चरमपंथियों ने विवादित जमीन पर फैसला आने से पहले ही बाबरी मस्जिद को जमींदोज कर दिया. मथुरा और काशी में भी मंदिरों के आस-पास मस्जिदों की मौजूदगी इन अलगाववादियों को खटकती है. ये नास्तिक ये भी नहीं समझते कि प्रभु और अल्लाह दोनों एक-दूसरे के आसपास ही खुश हैं और इस खुशी से ही देश में भाई-चारा बना हुआ है.


लेकिन संघ और उसके राजनीतिक मुखौटे भाजपा को कट्टर हिन्दुत्व से छुटकारा मिलता नहीं दिख रहा. ये देख लेने के बाद भी कि कट्टर हिन्दुत्व राजनीतिक रूप से लोकसभा में अधिक से अधिक जितनी सीटें दे सकता था, वो ये मुद्दा दे चुका और उन सीटों के बाद भी भाजपा को दूसरे दलों के सहयोग से सरकार बनानी पड़ी थी. मतलब ये कि हिन्दुत्व का संघ परिभाषित मुद्दा हिन्दुओं के ही गले ठीक से नहीं उतर रहा इसलिए बकियों के समर्थन की बात क्या की जाए.


सुप्रीम कोर्ट की तरफ से केंद्र सरकार में शामिल लोगों के भ्रष्टाचार पर लगातार टिप्पणी-सुनवाई-निगरानी से बदले माहौल में अन्ना हजारे आम लोगों के गुस्से का प्रतीक बनकर उभरे. अभी के माहौल से लगता है कि 2014 के चुनाव में कांग्रेस और यूपीए का जाना तय है. इसका एक स्वभाविक मतलब ये है कि भाजपा और एनडीए का आना पक्का है. इसलिए भाजपा और संघ पूरे जोश में है कि बिल्ली के भाग्य से छींका फूटने ही वाला है. लेकिन उन्हें याद नहीं रहता कि बीएस येदुरप्पा, जनार्दन रेड्डी, रमेश पोखरियाल निशंक, अनंत कुमार पर भी उसी तरह के भ्रष्टाचार के आरोप हैं जिन आरोपों से मनमोहन सिंह की सरकार घिरी हुई है.

यहां तक कि जिस 2जी घोटाले ने इस सरकार की सबसे ज्यादा जगहंसाई कराई है उसमें भी भाजपा के दिवंगत नेता प्रमोद महाजन का नाम बार-बार आ रहा है. इसलिए कांग्रेस या भाजपा को आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि चुनाव से पहले या ठीक बाद कोई तीसरा विकल्प सामने आ जाए.

भाजपा के पास सत्ता आती देख लालकृष्ण आडवाणी 2009 में गंवा चुकी दावेदारी फिर से पाने के लिए अचानक संसद में इस बात की घोषणा करते हैं कि वो एक और यात्रा करेंगे जिसका मुद्दा मंदिर या आतंकवाद नहीं बल्कि काला धन और भ्रष्टाचार होगा.

ये आडवाणी जी को याद नहीं रहा होगा कि 2009 के चुनाव में काला धन का मुद्दा उन्होंने बड़े जोर-शोर से उठाया था लेकिन वोटरों को उनकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ. कांग्रेस वाले ठीक ही जवाब देते थे उस समय कि जब आप सरकार में थे तो क्यों नहीं ले आए. अगर चुनावी भाषा में कहें तो काला धन मुद्दे पर जो वोट उन्हें मिल सकता था, वो मिल चुका है और उससे सरकार बनती नहीं दिखती.

वैसे जानने लायक बात है कि आडवाणी की यात्रा और रामदेव के आंदोलन से पहले देश में अनुमानित तौर पर 40 अरब डॉलर काला धन वापस आ चुका है. कोटक सिक्युरिटीज का ये आंकड़ा 2010-11 का है. ये बताते हैं कि 2010-11 में निर्यात में सरकारी आंकड़ों में 79 फीसदी की बढ़त दर्ज की गई जबकि बॉम्बे शेयर बाजार में सूचीबद्ध देश की शीर्ष इंजीनियरिंग कंपनियों के निर्यात में इसी दौरान वृद्धि की दर मात्र 11 फीसदी दर्ज की गई है. निर्यात का ये अंतर इन विशेषज्ञों के मुताबिक 40 अरब डॉलर काला धन की वापसी का संकेत है.

आडवाणी की यह यात्रा पार्टी के अंदर कई नेताओं को पसंद नहीं आई और संघ को तो बिल्कुल भी नहीं. सबको यही लगा कि ये रिटायरमेंट फेज से अचानक फायरब्रांड क्यों बन रहे हैं. सबको शक है कि आडवाणी 2014 की रेस से हटने को तैयार नहीं हैं और उमा भारती ने ये कहकर इस आशंका को मजबूत किया है कि आडवाणी पीएम पद के लिए सबसे बढ़िया दावेदार हैं. लेकिन आडवाणी की रणनीति अब इस तरह की दिख रही है कि जब 2014 में एनडीए का नेता चुनने का सवाल उठे तो भाजपा की तरफ से दो नाम घटक दलों के सामने रहें, एक तो खुद उनका और दूसरा नरेंद्र मोदी का.

यह वही स्थिति होगी जब अटल विहारी वाजपेयी का उदार चेहरा कट्टर आडवाणी पर भारी पड़ा था. आडवाणी पाकिस्तान से लौटने के बाद से खुद को लगातार उदार दिखाने की कोशिश में जुटे हैं. ऐसे में आडवाणी को उम्मीद होगी कि एनडीए के घटक दल मोदी से बचने के लिए उन्हें चुन लेंगे.

अपनी छवि बदलने की कोशिश को किसी भी तरह के हिन्दुत्ववादी मुद्दे से बचाने के लिए इस बार आडवाणी 25 सितंबर को हर साल की तरह सोमनाथ नहीं गए. आडवाणी ने दो दशक में कोई 25 सितंबर सोमनाथ दर्शन के बिना नहीं बिताया. हालांकि आडवाणी ने कहा कि चूंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मंदिर के दावे को मान लिया है इसलिए सोमनाथ यात्रा का मकसद पूरा हो गया है और उन्होंने इस साल ये दिन किसी और कार्यक्रम में समय दे दिया था इसलिए नहीं गए.

हम ये क्यों मान लें कि आडवाणी सोमनाथ सिर्फ इसलिए नहीं गए क्योंकि उन्होंने इस साल 25 सितंबर को किसी और कार्यक्रम में जाने के लिए हामी भर दी थी. ये तो आडवाणी को भी पता रहा होगा कि 25 सितंबर को जिस कार्यक्रम के लिए वो हामी भर रहे हैं वो उनकी 1990 की सोमनाथ यात्रा की शुरुआत का दिन है और इस दिन वो हर साल सोमनाथ ही जाते हैं.

आडवाणी 25 सितंबर को सोमनाथ नहीं गए और अपनी जन चेतना यात्रा की शुरुआत के लिए समाजवादी नेता और संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार जयप्रकाश नारायण की जन्मभूमि को चुना. भाजपा के अंदर कई नेता चाहते थे कि यात्रा की शुरुआत सोमनाथ से हो लेकिन ये आडवाणी की उन कोशिशों पर वज्रपात होता जो वो खुद को उदार बनाने के लिए कर रहे हैं. आडवाणी को इस बात की भनक है कि नीतीश कुमार भी 2014 की रेस के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं इसलिए भी बिहार से यात्रा की शुरुआत उनके लिए जरूरी थी.

आप कह सकते हैं कि वो नीतीश के हाथों अपनी यात्रा की रवानगी कराके एक हद तक सफल भी रहे. लेकिन राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा शुरू हो चुकी है कि नीतीश लोकसभा के चुनाव से पहले भाजपा और कांग्रेस के खिलाफ बिहार में एक गठबंधन बनाएंगे जो तीसरे विकल्प का हिस्सा होगा और शायद नीतीश उसके प्रधानमंत्री पद के दावेदार होंगे. ऐसे में नीतीश बिहार में कमल का फूल तो मुरझा ही सकते हैं.

आडवाणी ने सोमनाथ से दूरी बनाई या यूं कहिए कि अपनी राजनीति को सोमनाथ से आगे ले जाने की कोशिश की लेकिन पार्टी और संघ ने अपने पुराने नारे अयोध्या तो झांकी है, मथुरा-काशी बाकी है को याद रखते हुए उत्तर प्रदेश में दो रथयात्राओं की घोषणा कर दी. एक रथयात्रा काशी से और दूसरी मथुरा से रवाना हो चुकी है जो 17 नवंबर को अयोध्या में खत्म होगी.

पार्टी बिना कहे आडवाणी से कह रही है कि आप चाहें जो कर लें, हम अपना चोला नहीं बदलेंगे. हालांकि मथुरा और काशी से निकल रही यात्रा के एजेंडे पर कोई मंदिर या मस्जिद नहीं है लेकिन राजनीति तो संकेतों की भाषा से ही चलती है. हिन्दुत्व पर वोट करने वालों से भाजपा खामोशी से कह रही है कि आडवाणी भूल सकते हैं लेकिन हम न तो अयोध्या को भूलेंगे, न मथुरा को भूलेंगे और न काशी को.

अयोध्या, मथुरा और काशी सत्ता में भाजपा की वापसी की राह में सबसे बड़ा रोड़ा हैं और भाजपा आडवाणी की दावेदारी में सबसे बड़ा रोड़ा. आडवाणी की उम्मीद पार्टी से ज्यादा एनडीए के घटक दलों से है जो भाजपा को उन्हें चुनने के लिए मजबूर कर सकें. और ऐसे में नीतीश कुमार किंग बनेंगे या किंगमेकर, आडवाणी के लिए आने वाले दिनों का सबसे बड़ा सवाल यही है.


प्रतिरोध पर 14 अक्टूबर, 2011 को प्रकाशित

क्या हत्यारे तय करेंगे कि चश्मदीद कितना बोलेगा

प्रतिरोध के दमन में पिछले एक साल में इस सरकार ने कीर्तिमान कायम किए हैं. विरोध के अधिकार का दमन इतनी निर्ममता से हाल में हुआ है कि प्रतिरोध की आवाज उससे कमतर रखने का कोई औचित्य नहीं है.


एक लोकतांत्रिक देश में स्वभाविक रूप से मैं इस मुद्दे पर धरना, प्रदर्शन या अनशन पर नहीं जाऊंगा कि मुझे अमिताभ बच्चन की जगह फिल्म में लिया जाए. वैसे ये पागलपन मैं कर भी सकता हूं लेकिन फिर भी ये सरकार का नागरिकों के प्रति दायित्व है नहीं तो सरकार ना भी सुने तो कोई बात नहीं. लेकिन अगर मुझसे आवास प्रमाण पत्र में पंचायत सेवक पैसे मांग रहा है या इंदिरा आवास के लिए पंचायत सचिव को पैसे चाहिए या मुझे कुछ नहीं भी चाहिए और मुझे लगता है कि मुखिया महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना में हेराफेरी कर रहा है तो विरोध जताने के कितने विकल्प मेरे पास उपलब्ध हैं, यह लेख मूल रूप से इस सवाल पर ही मंथन करेगा.

शुरू करते हैं मुखिया के दफ्तर पर धरना से. मुखिया ने तो चोरी की इसलिए वो न तो मानेगा और ना मेरी बात सुनेगा. अपनी बात लेकर अब मैं प्रखंड कार्यालय जाता हूं और वहां बीडीओ साहब कहते हैं कि ये तो छोटी-मोटी बात है. मैं जांच करवाता हूं. जांच हुई और नतीजा ये निकला कि आरोप गलत मिले. अब मैं अनुमंडल कार्यालय जाऊंगा और वहां से मेरी शिकायत के साथ चिट्ठी जांच के लिए बीडीओ कार्यालय भेजी जाएगी और बीडीओ साहब एसडीओ को जवाबी डाक से बता देंगे कि ये आरोप पहले भी आए थे और जांच में कुछ नहीं निकला.

मुझे लगता है कि चोरी हो रही है और सच में हो रही है इसलिए ऐसा लग रहा है तो मैं जिला दफ्तर जाऊंगा. वहां से एक जांच अधिकारी भेजा जाएगा. अधिकारी की आवभगत होगी और रिपोर्ट में आरोप निराधार पाए जाएंगे. भ्रष्टाचार दोतरफा मामला है. एक चुराता है और दूसरा उससे फायदा पाता है. मुखिया अगर किसी के रोजगार का हक मार रहा है या बगैर काम के ही किसी के नाम पर पैसे निकाल रहा है तो वह उसे किसी से बांट भी रहा है. अपने सचिव से लेकर वार्ड सदस्य तक. जांच अधिकारी तो देखेंगे कि सूची में जो नाम हैं उनको पैसा मिला कि नहीं.

मुखिया बेवकूफ तो रहा होगा नहीं कि वोटर लिस्ट में नाम पढ़े बिना पैसा उठाएगा. ग्रामीण परिवेश में मुखिया का प्रभाव देखने वाले जानते हैं कि ये मुश्किल नहीं है कि मुखिया प्रलोभन देकर या धमका कर उस आदमी से न कहवा लें कि हां, उसे पैसा मिला है. जबकि सच यही है कि उसने न काम किया और न पैसा पाया. डीएम दफ्तर से भी मेरी शिकायत का हल नहीं निकला जबकि शिकायत वाजिब है तो मैं आगे कमिश्नर, ग्रामीण विकास मंत्री, मुख्यमंत्री के दरबार से होता दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंच जाऊंगा. प्रधानमंत्री नहीं सुनेंगे या सुनेंगे तो प्रक्रिया वही होगी और शिकायत हर बार की तरह झूठा पाया जाएगा और ये मान लिया जाएगा कि मैं वह आदमी हूं जो सरकारी प्रक्रिया में बाधा खड़ा कर रहा है. शुक्र है कि सरकार ने अभी ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जिसमें शिकायत झूठी मिलने पर जेल भेज दिया जाए नहीं तो मुझे बीडीओ साहब ही जेल भेज चुके होते. और मुखिया जी मौज़ से कमाई करते रहेंगे.

ये तो हुई एक ग्रामीण स्तर की बात या यूं कहिए कि उस स्तर की बात जिस स्तर के अधिकारियों को लोकपाल कानून के दायरे में लाने की वकालत अन्ना हजारे कर रहे हैं. ये वो स्तर है जो सीधे आम आदमी या उस आदमी को झेलाता है जिसकी पहुंच न मंत्री तक होती है और न अधिकारियों के संतरी के पास. आम लोगों को दुखी रखे अधिकारियों की इस फौज को सरकार लोकपाल कानून से यह कहकर बचाने की कोशिश कर रही है कि इतने ज्यादा लोगों से जुड़ी शिकायतों को देखने के लिए बड़ी संख्या में भर्ती करनी होगी. करनी होगी तो कीजिए सरकार.

कल्याणकारी सरकार है इस देश में. न राजशाही है और न तानाशाही है. लोगों को रोजगार भी तो मिलेगा. और, अगर एक लाख लोगों को लोकपाल में नौकरी देने से आम लोगों को कुर्सी पर बैठे चोर-लुटेरों से 50 फीसदी भी राहत मिले तो सरकार को अपनी पीठ खुद से ही थपथपानी चाहिए कि उसने कुछ पुण्य का काम किया.

अब किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर बात करते हैं. एक ऐसा मु्द्दा जो निजी शिकायत से बड़ा और व्यापक आम महत्व का होता है. कोर्ट में जनहित याचिकाओं की नींव भी शायद इसी से पड़ी होगी. मसलन, इरोम शर्मिला चाहती हैं कि पूर्वोत्तर के लिए बनाया गया सशस्त्र सेना विशेष अधिकार कानून वापस लिया जाए क्योंकि इसकी आड़ में दमन और महिलाओं पर अकथ्य अत्याचार का सिलसिला चल रहा है. अन्ना हजारे चाहते हैं कि सरकारी पैसों की बंदरबांट करने वाले लोगों को सबक सिखाने के लिए कड़ा लोकपाल कानून लाया जाए.

मेरी चाहत है सरकार को शिक्षा और स्वास्थ्य का सरकारीकरण कर देना चाहिए और इस पूरे क्षेत्र का नियंत्रण अपने हाथ में ले लेना चाहिए. अगर ऐसा हो जाए तो ये सोचिए कि कैसा देश हो जाएगा अपना. अगर आप गरीब हैं तो खुशी से नाचेंगे क्योंकि अब तक जो स्कूल आपके बच्चे की पहुंच में है और जो अस्पताल आपके बूते में है वो बहुत काम का नहीं रह गया है. सरकार इसके लिए काम तो करती है लेकिन फाइव स्टार से लेकर बिना स्टार वाले निजी स्कूलों और निजी अस्पतालों के शहर से महानगर तक पनपे कारोबार ने सरकार की दिलचस्पी, उसकी गंभीरता और उसकी जवाबदेही को खत्म सा कर दिया है. जब इलाज का कोई और विकल्प ही नहीं होगा तो सरकार पर अस्पतालों और स्कूलों को दुरुस्त रखने का दबाव बढ़ेगा.

देश के कितने फीसदी लोग गरीब हैं ये मोंटेक सिंह अहलूवालिया का योजना आयोग तय कर पाने में आपराधिक रूप से नाकाम रहा है. मोटेंक सिंह का आयोग जितना रुपया हर रोज कमाने वाले को गरीबी रेखा से ऊपर मानता है, उतने रुपए में मोंटेक सिंह के घर में एक दो कॉफी भी नहीं बन पाएगी. एक गरीब का बच्चा मैट्रिक तक की पढ़ाई जितने पैसे में हंसते-मुस्कुराते कर लेता है उतना दिल्ली के किसी औसत प्राइवेट स्कूल में एक बच्चे के महीने भर का फीस हो सकता है. कल्पना कीजिए कि अगर देश में संस्कृति, डीपीएस या बिट्स पिलानी नहीं होंगे तो क्या होगा. सोचिए कि अगर आईआईपीएम या आईएमटी नहीं होगा तो क्या होगा. सोचिए कि अगर मैक्स, फोर्टिंस, मेदांता जैसे अस्पताल भी नहीं होंगे तो क्या होगा. होगा ये कि सरकार को देश में स्नातक, शिक्षक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधन और दूसरे क्षेत्र के लोगों की जरूरत पूरी करने के लिए अपने स्कूलों और कॉलेजों को लायक बनाना होगा. पुरुलिया और दंतेवाड़ा के अस्पताल को मैक्स जैसा बनाना होगा. देश का हर बच्चा जिस स्कूल में पढ़ेगा वो सरकारी होगा और देश का हर आदमी इलाज के जिस भी अस्पताल में जाएगा वो देश के स्वास्थ्य मंत्रालय के मातहत काम करेगा.

लेकिन अगर आप मध्यम वर्ग या इससे ऊपर के हैं तो कहेंगे कि कबाड़ा हो जाएगा देश का. लेकिन देश की बड़ी आबादी को कबाड़ की तरह मानने वाले लोग अपने बच्चों को इंजीनियर बनाने के लिए सरकारी आईआईटी, मैनेजर बनाने के लिए आईआईएम, डॉक्टर बनाने के लिए एम्स में ही पढ़ाना चाहते हैं. फैशन डिजाइनर बनाने के लिए निफ्ट में ही दाखिला चाहते हैं. क्यों, अगर सरकारी चीजें कचड़ा होती हैं या हो जाती हैं तो इन लोगों को इन संस्थानों को स्वघोषित रूप से देश के गरीबों के लिए छोड़ देना चाहिए कि कचड़े लोग, कचड़े में पढ़ें. मध्यम वर्ग या संपन्न वर्ग भी इलाज के लिए एम्स ही आना चाहता है. ये भी तो सरकारी है. इसे भी देश के गरीब लोगों के लिए छोड़ दीजिए.

देश के 70 फीसदी गरीब जो वोट भी सबसे ज्यादा करते हैं उसकी चुनी हुई सरकार की सबसे ताकतवर नेता सोनिया गांधी कैंसर का इलाज एम्स में नहीं करातीं, राजीव गांधी कैंसर संस्थान में भी नहीं करातीं, अमेरिका में कराती हैं. अमर सिंह नाम के एक सांसद इलाज सिंगापुर में कराते हैं. किसी के इलाज की जगह चुनने के अधिकार पर सवाल नहीं है लेकिन सवाल ये है कि अगर सोनिया गांधी का इलाज देश में नहीं हो सकता है, अगर उनका ऑपरेशन देश के अंदर कोई अस्पताल और खास तौर पर सरकारी अस्पताल नहीं कर सकता तो राहुल गांधी के भाषण से चर्चित हुईं कलावती को अगर इसी बीमारी का इलाज कराना हो तो वो कहां जाएगी. उसे अमेरिका कौन ले जाएगा. अमर सिंह का रोग देश के दूसरे लोगों को भी होगा. गरीब एक बार भी सिंगापुर जा पाएगा क्या और नहीं जाएगा तो यहीं मर जाएगा या उसके इलाज के लिए कोई अस्पताल बनेगा.

तो मैं अपनी चाहत के व्यापक राष्ट्रीय प्रभाव के मद्देनजर सरकार को चिठ्ठी लिखता हूं. स्वास्थ्य मंत्री को, स्वास्थ्य सचिव को, स्वास्थ्य मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति के सभी सदस्यों को, योजना आयोग के उपाध्यक्ष को और इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री को भी. आपकी क्या अपेक्षा है, जवाब आएगा या नहीं. आएगा तो जवाब में क्या होगा. मैं 100 फीसदी दावे से कहता हूं कि ज्यादातर का जवाब नहीं आएगा. किसी संवेदनशील दफ्तर की चिठ्ठी आ भी गई तो लिखा होगा कि आपके सुझाव को संबंधित मंत्रालय या विभाग या अधिकारी के पास भेजा गया है और इस पर विचार चल रहा है. समय सीमा नहीं कि विचार कब खत्म होगा. छह महीने बाद फिर इन सबको को चिट्ठी भेजूंगा. ज्यादातर जगहों से जवाब नहीं आएंगे और कहीं से आ गया तो पहले जैसी बात होगी. फिर मैं तय करता हूं कि अब तो बहुत हो गया. अब धरना देना ही होगा और धरना देने के लिए मैं जंतर-मंतर पहुंच जाता हूं. वहां पहले से ही देश भर से अलग-अलग मांगों के साथ कई दर्जन लोग धरना देते मिलेंगे. कई महीनों से जमे हुए हैं. शायद प्रधानमंत्री को पता भी नहीं होगा कि कोई उनसे कुछ मांगने के लिए घर-परिवार छोड़कर यहां बैठा है.

मेरा धरना भी शुरू होता है. एक दिन का धरना. फिर बेमियादी धरना. सरकार अनसुनी करती ही जा रही है. फिर अनशन की बारी आती है. एक दिन का अनशन. उसके बाद आमरण अनशन. हर आमरण अनशनकारी अन्ना हजारे जैसा सौभाग्यशाली तो होता नहीं कि समर्थन में लाखों लोग सड़कों पर उतर आएं और सरकार के मंत्री सुबह से शाम तक रास्ते निकालते रहें कि कैसे अन्ना अनशन तोड़ें. छोटे-मोटे लोगों को पुलिस अनशन के दूसरे-तीसरे दिन उठाकर अस्पताल पहुंचा देती है. उठाने वाला तो कमजोरी की हालत में बोलने लायक नहीं रहता और अस्पताल में डॉक्टर अनशन तुड़वा देते हैं. हर कोई इरोम शर्मिला भी नहीं हो सकता कि अड़ ही जाए, जेल में रखो, अस्पताल में रखो या नजरबंद रखो, अनशन नहीं तोड़ूंगी.

मेरा कहना है कि अगर सरकार अनशन पर बैठे आदमी की मांग को न मंजूर करे और न ठुकराए तो उसे अनशन से उठाने का काम भी नहीं करना चाहिए. उसकी मौत को खुदकुशी नहीं बल्कि हत्या का मामला मानकर आरोप उस मंत्री या अधिकारी पर लगाना चाहिए जिसके नाम का ज्ञापन लेकर वो अनशन पर बैठा. लेकिन सरकार तय करती है कि मांग का तरीका क्या होगा, दायरा क्या होगा, उसकी सीमा क्या होगी. ये आईपीसी की धाराओं से निर्धारित होगा. मतलब, आप मांग करिए लेकिन जान न दीजिए. किसी राज्य में लोग रेलवे पटरी उखाड़ते हैं तो मांग पूरी करने के लिए सरकार घुटनों पर बैठ जाती है. कानून वहां भी टूटता है. आईपीसी की धाराओं का उल्लंघन वहां भी होता है पर उन्हें बाद में आम माफी दी जाती है या मुकदमों में बहुत गिरफ्तारी नहीं होती. हमें इस मामले में अन्ना हजारे का शुक्रगुजार होना चाहिए कि उन्होंने सिखाया कि मांग मनवाने का तरीका सिर्फ हिंसक ही नहीं, अहिंसक भी हो सकता है.

अगर सरकार आमरण अनशन के बाद भी स्वास्थ्य क्षेत्र और शिक्षा क्षेत्र के सरकारीकरण का फैसला नहीं लेती है तो मैं इसके बाद क्या करूंगा. जंतर-मंतर से खाली हाथ खुद ही अनशन तोड़कर आ जाऊं या फिर पुलिस द्वारा उठाने से पहले आत्मदाह कर लूं. और मैं चाहता हूं कि अगर मेरी मौत ऐसे अनशन के दौरान हो या ऐसे मु्द्दे पर आत्मदाह में हो तो पुलिस को मुझ पर खुदकुशी की बजाय प्रधानमंत्री पर हत्या का मुकदमा दर्ज करना चाहिए. अगर ऐसा होगा तभी सरकार जंतर-मंतर पहुंचने वाले हर दुखियारे का दर्द सुनेगी और समझेगी. नहीं तो इस देश में फिलहाल जंतर-मंतर प्रतिरोध की आखिरी सीमा है. न सुनवाई होना भी तो नामंजूरी ही है, ये बात दर्जनों मुद्दों को लेकर जंतर-मंतर पर हफ्तों-महीनों से बैठे लोगों को अब तक समझ में नहीं आई है.

प्रतिरोध पर 15 सितंबर, 2011 को प्रकाशित

Sunday, October 11, 2009

ओबामा शांतिदूत, क्यों मनमोहन में कांटे लगे थे

12 दिन के लिए नोबेल. ये नोबेल का अपमान है या पतन, ये कहे बिना मैं इतना कहना चाहूंगा कि अगर ईरान के खिलाफ आग न उगलने या चीन के डर से नोबेल शांति पुरस्कार के ही दूसरे विजेता दलाई लामा तक से मिलने से मुंह चुराने वाले को इस लायक समझा गया है तो यह रॉयल फाउंडेशन की गंभीरता पर चोट है.

अगर विश्व शांति के लिए इस साल किसी को नोबेल देना ही था तो अपने मनमोहन सिंह से बेहतर भला और कौन है. और कुछ नहीं तो कम से कम मुंबई हमले के बाद कुछ राजनीतिक दलों और कई समाचार संगठनों के संगठित हल्ला-बोल के बावजूद पाकिस्तान पर हमला न करना क्या विश्व शांति में कोई छोटा योगदान है.

पाकिस्तान पर भारत हमला करता तो कुछ और पड़ोसी मित्र का चोला उतारकर मैदान में देर-सबेर नहीं आ जाते, इसकी कोई गारंटी तो थी नहीं. मनमोहन सिंह ने इतनी दूरदर्शिता का परिचय दिया और पड़ोस में पड़े एक महाशक्ति को भारत पर हमला करने का कोई मौका नहीं दिया, ये क्या वैश्विक शांति में छोटा योगदान है.

आज भास्कर में गिरीश निकम जी ने लिखा है कि उनके पास भी विश्व शांति के लिए गजब का विजन है. उन्हें क्यों नहीं दिया जा रहा है नोबेल. ओबामा को भी तो विश्व को परमाणु हथियारों से मुक्ति दिलाने के विजन के लिए ही पुरस्कार दिया जा रहा है. और तो और, ओबामा ने क्या कहा, वो इस दिशा में लगातार काम करेंगे लेकिन उन्हें नहीं लगता कि उनके राष्ट्रपति रहते, यहां तक कि उनके जिंदा रहते, ऐसा हो पाएगा.

अब ऐसे नोबेल पुरस्कार पाने वाले को चूमने और बधाई देने के अलावा और क्या किया जा सकता है.

Saturday, September 19, 2009

नीतीश के लिए साधु-सुभाष साबित होंगे ललन सिंह

बिहार उप-चुनावः अराजकता और अहंकार के बीच उलझा जनादेश
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए 10 और 15 सितंबर को हुए मतदान के नतीजे आ गए हैं. जिन 18 सीटों पर चुनाव हुए थे, उनमें से 13 सीटों पर राजग का कब्जा था और बाकी बची 5 में से 4 राजद और 1 लोजपा के पास थीं. नतीजा जो आया, उससे इन 18 सीटों पर राजग की कुल हैसियत 5 रह गई है जबकि राजद और लोजपा ने 9 की ताकत पाई है. पिछली स्थिति के मुकाबले राजग को 8 सीटों का नुकसान हो गया है वहीं लालू और रामविलास की जोड़ी ने 4 ज्यादा सीटें हथिया ली. मुनाफे में रही पार्टियों में कांग्रेस, बसपा और एक निर्दलीय भी है जिन लोगों ने बाकी की 4 सीटें जीती हैं.
 
चुनाव का यह नतीजा मेरे विचार से लालू की अराजक सरकार और नीतीश की अहंकारी सरकार के बीच फंस गया जनादेश है. बिहार में जब लालू प्रसाद की सरकार हुआ करती थी तो अराजकता का आलम ये था कि कोई उसे जंगलराज कहता था और कोई नर्क. लेकिन उस दौर में भी लालू इतने घमंडी नहीं हुए थे जितने नीतीश इस छोटे से शासनकाल में ही बन गए.
 
लालू के राज में सड़कें नहीं बनती थीं. नीतीश के राज में जो सड़कें बन गई, लोग कहते हैं कि उनके कई ठेकेदार पेमेंट के लिए भटक रहे हैं. सड़कों को बनाने का काम लंबे समय से गुंडों के हाथ में ही रहा है. पेपर किसी और का, काम कोई और करता है. पेपर के मालिक जान बचाने के लिए लालू के राज से ही ऐसा करते रहे हैं. लालू के समय में सड़कें कम बनती थीं तो ज्यादातर गुंडे फुलटाइम गुंडागर्दी ही करते थे. किसी को उठा लिया, किसी को टपका दिया. ये सब सामान्य बात हो गई थी. लालू के ही समय में बिहार के कई डॉन टाइप के लोग विधायक और सांसद बन गए. नीतीश का राज आया तो सड़कें बनने लगीं. गुंडों को लगा कि नेता बनना है तो पैसा जुटाना होगा और ठेकेदारी करनी होगी. सारे गुंडे सड़क बनाने में जुट गए. छोटा गुंडा एक-दो किलोमीटर की ग्रामीण सड़कों का ठेकेदार हो गया तो बड़ा गुंडा लंबी सड़कों का हिसाब करने लगा. गुंडे ठेकेदार हो गए तो अपराध का ग्राफ धड़ाम से नीचे आ गया. मीडिया में जयकारा होने लगी. नीतीश ने तो कमाल कर दिया.
 
लेकिन जब समय बीता और नीतीश के दम पर ताकतवर हो गए अधिकारी आंशिक या अंतिम भुगतान के लिए ठेकेदारों को टहलाने लगे तो उसका असर सड़क के काम पर और काम करने वाले पर भी पड़ने लगा. इसका अंतिम असर इन चुनावों पर भी देखा जा सकता है. नीतीश के पीछे बड़ी संख्या में लालू राज के सताए गुंडे थे. अब ये गुंडे नीतीश से भी नाखुश हैं. बिना कमाई के आखिर कितने दिन ठेकेदारी चलेगी. अधिकारी किसी की सुनते नहीं हैं क्योंकि नीतीश मानते हैं कि सारे अधिकारी ईमानदार और सारे नेता भ्रष्ट हैं. गुंडों ने गुंडागर्दी से कमाई पूंजी लगा रखी है तो वो तन कर बात भी नहीं कर पाते. पता चला कि अधिकारी के साथ कुछ ज्यादा कर या कह बैठे तो जिंदगी की पूंजी ही फंसी रह जाएगी. इनलोगों के लिए नीतीश की सरकार अशुभ साबित हुई. ये सुधर तो गए लेकिन नीतीश उन्हें सुधारे रखने की गारंटी नहीं कर सके.
 
लालू राज में सरकारी अस्पतालों में डॉक्टर-मरीज कम मिलते थे. प्राइवेट क्लिनिक की सेहत ठीक रही. अब सरकारी अस्पताल में डॉक्टर-मरीज की भीड़ है. प्राइवेट क्लिनिक पहले से भी ज्यादा ठीक चल रहे हैं क्योंकि वहां के डॉक्टर भी एक्स-रे कराने सरकारी अस्पताल भेज देते हैं. सस्ते में काम हो जाता है. बिहार में मार-पीट के आधार पर कई मुकदमे हर रोज होते हैं. इन मुकदमों में अस्पताल में मिलने वाले जख्म प्रतिवेदन यानी मार-कुटाई की गंभीरता के प्रमाण पत्र की थाने और कोर्ट में जरूरत होती है. लालू राज में इसका कोई हिसाब-किताब नहीं था. अपनी पहुंच के हिसाब से लोगों के पास घायल और जख्मी हो जाने का विकल्प मौजूद था. नीतीश ने कहा कि हर अस्पताल का रजिस्टर होगा, उसमें रोज आने वाले मरीजों का नाम होगा, देखने वाले डॉक्टर का नाम होगा. अब हर रोज रजिस्टर भरा जाने लगा. नीतीश ने इन रजिस्टरों के नियमित हिसाब का प्रावधान कर दिया लेकिन इसकी गारंटी नहीं कर सके कि हर रोज यह रजिस्टर जिला या राज्य मुख्यालय तक अपनी रिपोर्ट दर्ज कराए. इसका नतीजा हुआ कि एक या दो दिन पीछे की तारीख में भी अपना नाम लिखवाने में अब लोगों को पांच-पांच अंक में रुपए खर्च करने पड़ रहे हैं. लालू की सरकार में यह सब काम खिलाने-पिलाने पर भी हो जाता था. इसका व्यापक असर मुकदमेबाज लोगों पर पड़ा है. नीतीश इस असर से कैसे बचे रहते.
 
नीतीश की सरकार के कई मंत्री अपने सचिवों से सीधे मुंह बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते क्योंकि सारे सचिव सीधे मुख्यमंत्री आवास से संपर्क में रहते हैं. जब मंत्रियों की यह हालत है तो विधायकों या सांसदों का क्या चलता-बनता होगा, समझा ही जा सकता है. और, जब अधिकारियों का मान-सम्मान इतना ज्यादा हो जाए तो उनका निरंकुश होना लाजिमी ही है. जो लाल कार्ड पहले सौ-पचास में बन जाता था, वो अब कुछ और महंगा हो गया है. हर जगह अधिकारियों ने अपने काम की रेट बढ़ा ली है. नेताओं की नहीं सुनने का लाइसेंस सरकार ने दे रखा है इसलिए विरोधी दलों के विरोध का भी असर अब इन अधिकारियों पर नहीं होता.
 
सरकारी इश्तहारों के दम पर लालू प्रसाद ने भी मीडिया को अपने हित के लिए खूब इस्तेमाल किया था लेकिन सुना जा रहा है कि नीतीश सरकार तो विरोधियों की खबर तक छपने से तड़प उठती है. पटना के अखबारों का बुरा हाल है. इश्तहार जारी करने वाले अधिकारी को इस बात की गारंटी करनी पड़ती है कि लालटेन या बंगला का हिसाब ठीक रहे. हिसाब गड़बड़ होने पर इश्तहार का हिसाब डगमगा जाता है. ऐसे में मीडिया के मन में भी नीतीश को लेकर जो भाव था वो बदल गया है. कशीदाकारी कम हो गई है क्योंकि उन्हें अब लगने लगा है कि उन्होंने ही इस सरकार की उम्मीदों को इतनी हवा दे दी है कि वो अब आलोचना का झोंका तक सहने को तैयार नहीं है.
 
नीतीश की पार्टी के नेता ललन सिंह को छोड़ दें तो पूरे प्रदेश में कोई विधायक या सांसद कोई काम कराने की बात दावे के साथ नहीं कर सकता. लालू यादव की पार्टी के कई नेता मानते हैं कि साधु यादव या सुभाष यादव लालू प्रसाद की जो दुर्गति नहीं कर सके, ललन सिंह नीतीश की उससे भी बुरी हालत करवाएंगे. बिहार के तमाम बड़े नाम जो अलग-अलग गिरोह के सरदार हैं, ललन सिंह के भरोसेमंद हैं. ललन सिंह मुंगेर से लड़ने जाते हैं तो उसकी तैयारी वो दो साल पहले शुरू कर देते हैं जबकि चुनाव आयोग तीन महीने की ट्रांसफर लिस्ट देखकर अपने को बहुत होशियार समझता है. अहंकारी नीतीश हैं या ललन सिंह, ये अंतर कर पाना कई महीनों से मुश्किल है. बिहार के नेताओं में यह बात खूब होती है कि नीतीश सीएम हैं तो ललन सिंह सुपर सीएम. कौन कहां रहेगा, कौन कहां नहीं रहेगा, ये ललन सिंह ही तय करते हैं. ललन सिंह के राजनीतिक सफर पर गौर करें तो नीतीश सरकार की एक मंत्री के सहयोगी के तौर पर सत्ता का स्वाद चखने वाले ललन सिंह आज ताकत के मामले में उस मंत्री के भी ऊपर हैं. उनकी बराबरी सुशील मोदी से की जा सकती है. बीजेपी वाले सुशील मोदी को अपनी पार्टी से ज्यादा नीतीश की पार्टी लेकिन जेडीयू नहीं, का नेता मानते हैं. लालू के खिलाफ पशुपालन घोटाला का मुकदमा उन्होंने दायर किया, इसके सिवा उनकी ऐसी कौन सी उपलब्धि है जो नीतीश जैसे नेता की पार्टी के वो राज्य में नेता बने रहें. चुनाव प्रबंधन में वो सबके उस्ताद हैं, ये उन्होंने इस लोकसभा चुनाव में साबित कर दिया है.
 
कायदे से तो नीतीश कुमार को खुद की, अपने पूरे मंत्रिमंडल की और बिना मंत्रिमंडल में रहे कई मंत्रियों से ज्यादा ताकतवर ललन सिंह की संपत्ति का ब्यौरा एक बार फिर से सार्वजनिक करना चाहिए. इन सबों की संपत्ति का ब्योरा चुनाव आयोग के पास है लेकिन इनके रहन-सहन का इनकी घोषित संपत्ति से कोई तालमेल नहीं है. लोगों ने शपथपत्र में मारुति लिखा लेकिन चढ़ रहे एंडेवर हैं. किसकी है लैंड क्रूजर, इसका हिसाब भी तो नीतीश जी देना चाहिए. लालू जी जब पटना और उसके बाद दिल्ली से बेदखल हो सकते हैं तो आप इस भ्रम में बिल्कुल न रहें कि बिहार की जनता ने आपके साथ कोई पंद्रह साल का करार किया है. आपकी ईमानदारी की तो आप जानें, आपकी ईमानदारी के नाम पर पूरे राज्य में कई दुकानें चल रही हैं. ललन सिंह जैसे लोगों की संगत में रहेंगे तो वोटरों को आपकी पंगत बदलते भी देर नहीं लगेगी.
 
बिहार विधानसभा की 18 सीटों के लिए हुए उप-चुनाव में पार्टियों की औकात- आरजेडी- 6, एलजेपी- 3, जेडीयू- 3, बीजेपी- 2, कांग्रेस- 2, बीएसपी- 1, निर्दलीय- 1
 
इस आधार पर अगर ये कहें कि एनडीए को लोकसभा चुनाव में जो वोट मिले बिहार के लोगों ने लालकृष्ण आडवाणी के नाम पर दिए तो कुछ ज्यादा नहीं होगा. बिहार वाले शायद आडवाणी को पीएम बनाना चाहते थे. नीतीश कुमार तो लिटमस टेस्ट में फेल हो गए क्योंकि आम तौर पर उप-चुनाव में सत्तारूढ़ पार्टी की जीत होती रही है. अगर इन 18 सीटों के हिसाब से विधानसभा का गठन होता तो लालू-रामविलास की सरकार तो बन ही जाती. लोकसभा चुनाव के बाद आरजेडी और दूसरे दलों से नेताओं को जेडीयू में आयात करने का जो सिलसिला शुरू हुआ था अब उसके आगे जारी रहने की उम्मीद बिल्कुल भी नहीं है. आरजेडी छोड़कर गए बड़े नेता अपनी औकात जान गए हैं. वोटरों ने उन्हें नकार दिया. बिहार में एनडीए की सरकार बनने के बाद एनडीए की तरफ दूसरे पाले से आए नेताओं का बड़ा हिस्सा जेडीयू को नसीब हुआ. बड़ी संख्या में आरजेडी और दूसरे दलों के नेताओं के आने से जेडीयू भी वैसा ही हो गया जैसा आरजेडी हुआ करता था.
 
असल में लगता ये है कि आरजेडी की गंदगी जेडीयू में चली आई और अच्छे लोग वहीं रुके रहे. अगले साल जब चुनाव होंगे तो क्या पता, ललन सिंह जैसे हवा-हवाई नेताओं और दूसरे दलों से आए इम्पोर्टेड नेताओं की वजह से नीतीश को विरोधी दल के नेता पद के लिए भी बीजेपी के साथ कुश्ती करनी पड़े. केंद्र में बिना कांग्रेस की मदद किए या लिए आने से तो नीतीश कुमार दूर ही रहे. ऐसे में अगर बिहार में भी वोटरों ने तीर को तोड़ दिया तो मीडिया के एक वर्ग में मिस्टर क्लिन के रूप में शोहरत बटोर रहे बेचारे नीतीश निशाना लगाएंगे कहां.
 
(संशोधित कॉपी- पहले की कॉपी में एनडीए को 5 की बजाय 6 सीट दे दी गई थी जबकि राजद और लोजपा को 9 की जगह पर 8 ही सीटें दी गई थीं. उस समय के नतीजे इसी तरह आ रहे थे. मौजूदा कॉपी चुनाव आयोग द्वारा जारी विजेता सूची के आधार पर है.)

Saturday, August 15, 2009

कितना बड़ा चमचा हूं मैं

चमचा होने में कोई बुराई है क्या. पिछले हफ्ते एक साइट पर चल रही टिप्पणियों के घमासान में मैंने यह लिखा था. लेकिन उसके बाद से ही यह सोच रहा था कि चमचागीरी क्या है और चमचा कैसे बना जाता है. तो अपने इस ब्लॉग पर एक साल से भी ज्यादा समय के बाद लिख रहे पहले पोस्ट पर चमचागीरी पर अपनी समझदारी की बात करते हैं.
 
स्कूल-कॉलेज में पढ़ाई-लिखाई के वक्त से ही आपके साथ चमचागीरी नाम का यह हसीन हादसा हो सकता है. किसी शिक्षक का विशेष अनुराग आपको उनका चमचा बना सकता है. मैट्रिक, इंटर या बीए या उससे ऊपर की तमाम पीएचडी और डी लिट् जैसे उपाधि आप अर्जित ज्ञान के दम पर पाते हैं. लेकिन इस उपाधि के लिए अर्जित ज्ञान काम नहीं आता. इसके लिए जिला, प्रांत या राष्ट्रीय स्तर पर कोई प्रतियोगिता नहीं होती कि किसी को जिला, प्रांत या देश का सबसे बड़ा चमचा ठहराया जा सके. पढ़ाई-लिखाई में जो मेहनत करनी होती है, उस लिहाज से देखें तो चमचागीरी बहुत आसान विधा है और कई जगह इसे अपने ज्ञान के विकल्प के तौर पर इस्तेमाल में लाया भी जा सकता है.
 
चमचा बनने के लिए अपने स्तर से बहुत कुछ करने की जरूरत नहीं होती. आप विद्यार्थी हैं तो अपने किसी शिक्षक की ज्यादा तारीफ शुरू कर दीजिए. अगर कोई सहपाठी कहता है कि उनकी क्लास में उसके दिमाग की दही बन जाती है और आप उससे मीठी या खट्टी बहस करते हैं और यह साबित करना चाहते हैं कि आपके पसंद के गुरुजी जबर्दस्त पढ़ाते हैं तो आप चमचा बन गए मानिए. इसके लिए आपके गुरु और आपके बीच किसी इकरारनामे की जरूरत नहीं है.
 
पढ़ाई के बाद नौकरी का काम शुरू होता है. यहां अपने से वरिष्ठ किसी भी अधिकारी की तारीफ कीजिए या उनके विरोधियों की बातों में चाय की चुस्कियों के दौरान हां की बजाय ना में बात करना शुरू कर दीजिए, चमचा बन गए आप. अगर ऐसे में आपका समयवद्ध वेतन बढ़ गया या प्रोमोशन हो गया तो अंधों के हाथ बटेर ही लग गई समझो. फिर तो आपसे जले-भुने लोग घूम-घूम कर गाएंगे कि चमचागीरी भी कोई चीज होती है और उसका इनाम तो मिलना ही चाहिए.
 
सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भी चमचागीरी की उपाधि हासिल करने के लिए यही रामवाण है. उम्र, पद या प्रतिष्ठा में अपने से बड़े किसी भी शख्स की तारीफ कीजिए और आलोचना का जवाब दीजिए, चमजागीरी का खिताब हासिल कर लेंगे.
 
मेरे विचार से अगर कोई आदमी यह कहता है कि वह किसी का चमचा नहीं है या नहीं रहा और न रहेगा तो वह सरासर झूठ बोल रहा है. मैं उसे चुनौती देता हूं कि वो अपना नाम, पता और स्कूल या कंपनी का नाम बताए, उसकी चमचागीरी का प्रमाण सिर्फ उसे मेल करके बता दूंगा. क्योंकि मेरा मानना है कि चमचागीरी प्राकृतिक चीज है. इस शब्द को हेय दृष्टि से देखने की जरूरत नहीं है. यह कोई प्लेग या हैजा नहीं है कि चमचागीरी सुनकर छी-छी बोला जाए या चमचा लोगों से दूर रहा जाए. इस प्राकृतिक गुण के लिहाज से मैं एक-दो दर्जन से ज्यादा लोगों का चमचा तो हूं ही. गिनती में कुछ कमी हो सकती है.
 
मेरी तो मनमोहन सिंह सरकार से मांग है कि देश में एक राष्ट्रीय चमचा आयोग का गठन होना चाहिए और उसमें सोनिया गांधी के आस-पास रहकर विकसित हो रहे नेताओं को सदस्य बनाना चाहिए. इस आयोग को राष्ट्रीय स्तर पर हर साल एक परीक्षा का आयोजन करना चाहिए और हर साल 15 अगस्त के दिन देश भर से चुने गए सौ चमचों को सम्मानित करना चाहिए. चमचागीरी को सम्मान दिलाने की लड़ाई शुरू करने का समय आ गया है क्योंकि चमचा तो हममें से हर कोई किसी न किसी का है. जो मेरी राय से इत्तेफाक नहीं रखते वो यह कबूल करने डरते हैं कि वो भी चमचा हैं.

Monday, June 9, 2008

सोनिया की गैस खत्म, राहुल ने व्रत रखा...

चूंकि यह सपना है इसलिए इसके चरित्र और पात्र काल्पनिक हैं. लेकिन संयोग या कुयोग से अगर इन नामों से मिलते-जुलते लोग आपकी नजर में आएं तो उसे महासंयोग से अधिक न माना जाए।

कल रात मैं नींद पूरी नहीं कर सका. सपने में सोनिया आ गई थीं. और, सपना भी ऐसा डरावना कि पूछो मत...

सोनिया अम्मा राहुल भैया से पूछ रही थीं कि तुम्हारे पास कुछ पैसा है. राहुल ने पूछा क्यों, बोलीं गैस खत्म हो गई है. राहुल बोले, नहीं पैसा तो नहीं है. सोनिया ने फिर पूछा, इस महीने जो वेतन मिला था, क्या हुआ. राहुल बोले, दोस्तों के साथ उड़ीसा के दलित इलाके में पिकनिक मनाने गया था. काफिले में गाड़ियां ज्यादा थी, कई टीवी वाले भी थे, सबकी टंकी फुल करानी पड़ी. रेस्तरां में खाने-पीने का खर्च बढ़ गया. राहुल बोले, मनमोहन या मुरली को कहते हैं, गैस सिलेंडर भिजवा देंगे. सोनिया बोलीं, नहीं. लोग सुनेंगे तो क्या कहेंगे. राहुल बोले, देश में लोग ऐसे ही चल रहे हैं, कोई कुछ नहीं बोलेगा. इस तरह की उधारी तो आम आदमी के लिए आम बात है. वाद-विवाद के बाद तय हुआ कि प्रियंका दीदी की ससुराल से ही गैस सिलेंडर मंगवा ली जाए. दीदी व्यापारी परिवार में गई हैं सो वहां कोई दिक्कत-सिक्कत है नहीं।

राहुल भैया ने प्रियंका दीदी के घर फोन लगाया. पता चला कि फोन की लाइन कट गई है. जेब में पैसे थे नहीं तो राहुल भैया खुद साइकिल लेकर निकले प्रियंका दीदी के घर. वहां पहुंचकर पूछे कि फोन को क्या हो गया. दीदी ने बताया कि बीएसएनएल वालों का चार्ज महंगा है और बिल बहुत आ गया था तो हमने कटवा लिया. अब मोबाइल ले लिए हैं जिसमें इनकमिंग आने पर पैसा बढ़ जाता है. राहुल भैया ने कहा कि ये बीएसएनएल वाले कॉल दर सस्ती क्यों नहीं करते, जब कम रेट पर अंबानी की कंपनी मुनाफा कमा सकती है तो ये सरकारी कंपनी क्यों महंगाई बनाए हुए हैं. दीदी बोलीं, यही तो.... क्योंकि यदि बीएसएनएल सस्ता हो गया तो लोग हच, एयरटेल, रिलायंस क्यों लेंगे और जब ये मुनाफा नहीं कमाएंगे तो चंदा कैसे देंगे।

खैर, चाय-पानी के बाद जल्दी ही राहुल काम की बात पर आ गए. दीदी को बताए कि घर पर गैस खत्म हो गई है, मां ने सिलेंडर मांगा है. इस महीने की तनख्वाह मिलने पर गैस लौटा दूंगा. दीदी ने कहा, मेरे घर भी एक ही सिलेंडर है. पहले दो-तीन भरकर रखती थी लेकिन अब साग-सब्जी, चावल-दाल, तेल-घी सब महंगा हो गया है तो इतने पैसे नहीं बचते कि स्टॉक रखा जाए. बेचारे राहुल खाली हाथ घर लौट आए. मां को हाल सुनाया. सोनिया ने कहा, ऐसा करो कि तुम मेरे दफ्तर की गैस ले आओ, कहना हमारी खत्म हो गई है. वहाँ गए तो पता चला कि महंगाई से परेशान लोगों का एक झुंड आया था जो गैस सिलेंडर लूटकर ले गया।

साइकिल चला-चलाकर थक गए राहुल घर लौटे और मां को हाल बताया. सोनिया ने शिवराज को फोन लगाया और कहा कि उनके दफ्तर से लूटे गए गैस सिलेंडर को खोजा जाए. शिवराज बोले, पता कर रहा हूं लेकिन जहां तक मेरी खबर है, इसमें पड़ोसियों का हाथ होने के संकेत मिले हैं लेकिन अभी यह पूरी तरह नहीं कहा जा सकता क्योंकि इससे पड़ोसी से आपके संबंधों पर असर पड़ सकता है।

सोनिया भी परेशान हो गईं. झल्लाहट में उन्होंने रेसकोर्स फोन लगाया. पूछा इतनी महंगाई कैसे बढ़ गई है. मनमोहन बोले, चिदंबरम से पूछिए. चिदंबरम से पूछ गया, वो बोले, मनमोहन से पूछिए. सोनिया बोलीं, अरे आम आदमी तो मुझसे पूछेंगे न. तुम तो खास आदमी के सवालों के जवाब देने के लिए हो।

अब राहुल परेशान. भूख बढ़ती जा रही थी, साइकिल चलाने से कमजोरी कुछ ज्यादा ही हो गई थी. मां से बोले, कुछ खाना दो. सोनिया बोलीं, गैस खत्म है तो कुछ बना नहीं है. अचानक सोनिया की आंखों में चमक आ गई, राहुल से बोलीं कि आज मंगलवार है तो तुम ऐसा करो कि मंगल का व्रत रख लो. शाम तक कुछ इंतजाम हो जाएगा. इस बीच मैं राजीव से कह देती हूं कि वो खबर फैला दे कि राहुल बाबा ने मंगल व्रत रखा है ताकि देश में महंगाई खत्म हो और आम आदमी को राहत मिले. राहुल ने कहा, इसे खबर बनाने की क्या जरूरत है. सोनिया बोलीं, इससे तुम दलितों के बाद हिंदुओं के बीच भी हृदय सम्राट बन जाओगे.....

अब इसके बाद तो चमक राहुल की आंखों में थी. भूख का दुख गायब, गैस की चिंता खत्म....................

आगे भी कुछ दिखता लेकिन मेरी अम्मा ने जगा दिया. गैस खत्म हो गई थी। अब उधारी-जुगाड़ी की बारी मेरी थी. लेकिन मंगल का व्रत रखने का सपनैली कांग्रेसमाता का आइडिया मेरी भी आँखों में कौंध रहा था और इससे छलक रही मेरी खुशी का राज जाने बगैर मेरी अम्मा मुझे बावला घोषित कर चुकी थी।

यह एक बावले का बावलापन था या कांग्रेसमाता के आइडिये का दिवालियापन, तय करने में वक्त लगेगा.

मोह तो अब सपनों से भी टूट गया... सच ही कहा है.. सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना... उधारी-जुगाड़ी के सारे प्रयास विफल हो चुके थे. मन में पाश की तरह की कविता हो रही थी.. अम्मा, कितना मुश्किल है बिना गैस के घर लौट कर आना...

जनपथ देवी की जय...