आदरणीय श्री राजदीप सरदेसाई जी, श्री कमर वहीद नकवी जी और सम्मानित श्रीमती अनुराधा प्रसाद जी से व्यक्तिगत तौर पर क्षमा के साथ क्योंकि मेरी राय पूरी तौर पर व्यक्तिगत है और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के मात्र एक पहलू पर है। पत्रकारिता में उनका व्यापक योगदान है और उसका मैं भी बहुत सम्मान करता हूं.
कंटेंट कोड और आचार संहिता के बहस में पड़े बिना टीवी चैनलों को लेकर मेरी कुछ निजी राय है। सर्कस रिंग के बाहर के दर्शक को ताली और गाली दोनों का अधिकार है. मेरी राय को आप इस तरह भी ले सकते हैं. कोई परवाह करे, न करे, कहने या बकने के मेरे अधिकार से मुझे वंचित नहीं किया जा सकता. वैसे भी प्रेस वाले जिस संविधान का हवाला देकर जो जी में आए, दिखा और बता रहे हैं, और इस अधिकार को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, वही संविधान सबसे पहले नागरिक को बोलने की आजादी देता है. दो-तीन दिन पहले दूरदर्शन पर देर रात टेलीविजन चैनलों के बड़े-बड़े बहसबाज इस बात पर रायशुमारी कर रहे थे कि कंटेंट कोड बन गया तो क्या-क्या हो जाएगा। कोई कह रहा था कि पहाड़ टूट पड़ेगा. किसी का मानना था कि प्रलय आ जाएगा.
इससे थोड़ी देर पहले ही उसी रात एनडीटीवी पर भी ऐसे ही कुछ दिग्गज लोग इस बात पर उलझ रहे थे कि आखिर दर्शक देखना क्या चाहता है. एनडीटीवी पर पंकज पचौरी जी बहस को संभाल रहे थे तो दूरदर्शन पर आलोक मेहता जी. दूरदर्शन वाली बहस में एनडीटीवी पर ऐसी ही बहस करवा चुके पचौरी साहब भी मौजूद थे. मुद्दे की बात यह है कि आलोक जी वाली बहस में राजदीप जी और अनुराधा जी और एनडीटीवी वाली बहस में नकवी जी ने जो बातें कही, उस पर मेरी गहरी और तीखी आपत्ति है। इन तीनों के कहे-सुने पर कुछ कहूं, इससे पहले प्रभु चावला जी के उस सवाल से अपनी सहमति और एकजुटता पेश करना चाहता हूं, जिसे आलोक जी ने अनसुना कर दिया.
चावला जी ने बस इतना कहा था कि सामाजिक जवाबदेही को लेकर जिस कंटेंट कोड की बात चल रही है, उसका पूरा लक्ष्य सिर्फ न्यूज के चैनल ही क्यों हों. इस भार को स्टार सरीखे उन चैनलों को भी उठाना चाहिए जो अपनी गल्पकथाओं में एक महिला की कई-कई शादियां करवा रहे हैं. लेकिन चूंकि ज्यादातर लोग समाचार चैनल से थे, इसलिए चावला जी की बात को आलोक जी ने आगे नहीं बढ़ाया या फिर बढ़ने नहीं दिया. इस बात की झल्लाहट चावला जी के चेहरे पर साफ तौर पर दिख रही थी लेकिन बहस में मौजूद अधिकांश लोग तो न्यूज चैनल पर तीर चलाने या चैनलों का पक्ष लेने के लिए तैयारी करके पहुंचे थे. और, यह बात भी टीवी चैनल वालों के नक्कारखाने में गुम हौ गई.
राजदीप जी की बात...
पटियाला में एक आदमी के आत्मदाह वाली खबर पर दर्शक दीर्घा से एक सवाल आया था कि क्या पत्रकार का काम यह नहीं था कि वह उस आदमी को जान देने से रोकता या आग लगा लेने के बाद कैमरा रखकर उसे बचाने की कोशिश करता। अलबत्ता, दर्शक का कहना था कि पत्रकार उसे उकसा रहे थे। राजदीप जी का कहना रहा कि पत्रकार पार्टी नहीं बनता है। वह सिर्फ और सिर्फ पत्रकार है. जो हो रहा है, बस उसे बताता और दिखाता है. खबर से आगे-पीछे उसकी कोई जवाबदेही नहीं बनती. अगर वह खबर को खबर के तौर पर देखने के बजाय किसी और नजरिए से देखने लगा तो खबर बन ही नहीं पाएगी. और, फिर दुनिया को यह पता नहीं चल पाएगा कि हालात कुछ ऐसे हो गए थे कि सरेआम खुदकुशी के अलावा पटियाला वाले के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था.
मेरा कहना है कि...
दो-तीन दिन पहले ही एक स्टिंग ऑपरेशन को लेकर नोएडा के एक डॉक्टर साहब ने आईबीएन7 पर मुकदमा दर्च कराया है। मुकदमे में एक वादी होता है और दूसरा प्रतिवादी. आईबीएन7 प्रतिवादी बनाया गया है. माने राजदीप जी का चैनल मामले में एक पार्टी बन चुका है. आरोप है कि एक डॉक्टर के कहने पर चैनल ने साजिशन स्टिंग किया और इन डॉक्टर साहब को फंसाया. कहा जा रहा है कि कई तरह की विभागीय जांच में डॉक्टर साहब बरी हो गए हैं. अब राजदीप जी ये पत्रकार खबर दे रहे थे या खबर गढ़ रहे थे? इनकी गलती क्या लाइव इंडिया के उस फर्जी स्टिंग से किसी भी तरह से भी कमतर है जिसमें एक शिक्षिका पर अपने स्कूल की बच्चियों से धंधा करवाने का आरोग लगाया गया था. इस मामले में भी पत्रकार के द्वारा उमा खुराना जी के एक शत्रु के साथ मिलकर स्टिंग करने की बात सामने आ चुकी है.
राजदीप जी ने खुराना जी के मसले पर राय रखी कि ऐसी गलती उन चैनलों पर हो रही है, जिसके संपादक काम नहीं करते। अपने हिन्दी चैनल के संपादक के बारे में उनकी क्या राय है? डॉक्टर साहब तो यही कह रहे हैं कि उन्हें फंसाया गया है. इन दोनों मामले को परे रखकर भी बात करें तो समाचार चैनलों के पत्रकारों पर हाल के दिनों में खबर बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने के आरोप लगे हैं. ऐसे पत्रकार हरेक मनोरंजन प्रधान समाचार चैनलों में मौजूद हैं. कभी ये पत्रकार किसी को गया में खुदकुशी के लिए उकसाते हैं तो कभी दूल्हे को लेकर उसकी दूसरी शादी करवाने चले जाते हैं. कभी पहली पत्नी को लेकर दूसरी शादी रचा रहे दूल्हे की मंडप पर पिटाई दिखाते हैं. पता नहीं, इन जांबाज और होनहार पत्रकारों को ऐसे मामलों की खबर कैसे लग जाती है. पुलिस नहीं पहुंचती लेकिन ये पहुंच जाते हैं. सोचना चाहिए कि ये पत्रकार कभी भी किसी आतंकी घटना या उसकी साजिश रचने की लाइव तस्वीरें क्यों नहीं जुटा पाते हैं.
जवाब साफ है कि इन्हें वहां बुलाया नहीं जाता. माने राजदीप जी की नजर में खुदकुशी की खबर का न्योता हो तो उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए और उसके मरने तक किसी को बताने की जरूरत महसूस नहीं करनी चाहिए. वर्ना दुनिया यह जान ही नहीं पाएगी कि सिस्टम से आजिज फलां ने फलां जगह पर जान दे दी. एक और बात, राजदीप जी कहते हैं कि हमें पार्टी नहीं बनना चाहिए। शायद उन्हें नहीं मालूम है लेकिन पूरा देश यह जानता है कि नरेंद्र मोदी, विहिप, बजरंग दल और शिवसेना को लेकर उनका नजरिया कहीं से भी वामपंथियों से कमजोर नहीं है. क्या आप यहां देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के सरोकार की वजह से पार्टी नहीं बनते हैं? और जब राजनीतिक मामलों में आप पार्टी बन सकते हैं तो एक निरीह की जान बचाने में पार्टी बनने से परहेज क्यों? देश में खबरों का इतना टोटा नहीं है कि किसी की खुदकुशी या किसी दूल्हे की पिटाई के बिना बुलेटिन तैयार न हो पाए.
अब बात नकवी साहब की...
नकवी साहब ने एनडीटीवी पर चली बहस में तीखे तेवर में कहा कि जिस कंटेंट कोड को लागू करने के लिए सरकार की तरफ से ब्रिटेन और बाकी देशों का उदाहरण दिया जा रहा है, भारत का लोकतंत्र वैसा नहीं है, इसलिए यहां रेगुलेटर को नहीं रखा जाना चाहिए।
मेरा कहना है कि....
बिल्कुल सही बात है कि भारतीय लोकतंत्र और उसके लोग ब्रिटेन जैसे नहीं हैं। लेकिन नकवी साहब को यह बताना चाहिए कि उस स्तर तक भारतीय लोकतंत्र कैसे पहुंच सकता है. नाग-नागिन, पुनर्जन्म, भूत दिखाकर वे क्या भारत के लोगों को उस ऊंचाई पर ले जा रहे हैं, जिस स्तर पर ब्रिटेन का लोकतंत्र है. उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उनके चैनल ने लोगों को परिपक्वता के उस स्तर तक ले जाने के लिए क्या-क्या दिखाया है? क्रिकेट, कवरेज के भूखे कलाकार, नेताओं के भाषण, फर्जी चुनाव सर्वेक्षण के अलावा भारतीय लोकतंत्र को आप दे ही क्या रहे हैं, जो अपने बचाव में उसकी दुहाई देते रहते हैं. यह थोथी दलील भर है. जो चैनल राखी सावंत को पूरी तरह से स्क्रीन पर दिखाने के लिए अपने टिकर और स्क्रॉल हटा सकता है, वह और क्या-क्या कर सकता है या करता रहा है, इसके लिए किसी कोर्ट में बहस की जरूरत नहीं है।
मेरा तो यह मानना है कि नकवी जी और उनके जैसे बॉस चाहते हैं कि भारतीय लोगों की सोच-समझ का स्तर वहीं ठहरा रहे, जहां है. जहां तक हो सके उसे कुछ पीछे ले जाने की कोशिश की जाए. इसमें अर्थशास्त्र भी है. ऐसे कार्यक्रम तैयार करने पर काफी कम खर्च आता है. असली खबर दिखाने के लिए पत्रकार को फील्ड में जाना होगा, भटकना होगा और तब जाकर भी खबर बनेगी कि नहीं, गारंटी नहीं की जा सकती. लेकिन गल्पकथा पर बनी फिल्मों को देखने के आदी हो चुके भारतीय दर्शक गल्प समाचार को भी जरूर देखेंगे, यह टीआरपी से तय हो गया है.
एक कदम आगे बढ़ कर कहूं तो दर्शक स्क्रीन पर वह भी देखना चाहते हैं जिसे किसी भी परिवार में बाप-बेटा अलग-अलग कमरों में या एक-दूसरे से छुप कर देखता है. उदय शंकर जी पहले ही कह चुके हैं कि दर्शक जो देखेगा, हम दिखाएंगे. अगर कंटेंट कोड न बना तो सचमुच कोई न कोई यह दिखा ही देगा. छुपा-ढंक कर इंडिया टीवी ऐसे कार्यक्रम दिखाता ही रहा है.
और अंत में अनुराधा जी की बातें....
अनुराधा जी ने गौरव से कहा कि अगर टीवी चैनल होते तो आपातकाल नहीं लगाया जाता। चैनल वाले सरकार को बेनकाब कर देते।
मेरा कहना है कि....
अनुराधा जी की बातों से मैं सौ फीसदी सहमत हूं। अगर समाचार चैनल तभी आ गए होते तो न तो जेपी संपूर्ण क्रांति को जमीन पर उतार पाते और न ही आपातकाल की नौबत आती. तब चैनल वाले होते तो होता यह कि उस दशक में तेजी से उभरे अमिताभ बच्चन तभी महानायक बना दिए गए होते. क्रिकेट की दीवानगी अब तक सनक में बदल चुकी होती. और जिन बुरी आदतों से महानगरों के बच्चे आज गुजर रहे हैं, वे लक्षण गांव-गिरांव तक कब के पहुंच चुके होते. अभी तक तो उनकी कंपनी दूसरों के लिए कार्यक्रम बनाती थी.
अब वे खुद का चैनल ला रही हैं. इस लिहाज से उनकी सोच और नजरिए पर तो उनका चैनल शुरू होने से पहले कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन, अगर उन्हें लगता है कि सबसे असरदार माध्यम टीवी की पत्रकारिता देश की सूरत संवार सकती है तो हम सबको उनके चैनल का भी इंतजार है. अनुराधा जी को भी मालूम है कि कालाहांडी भुखमरी से गुजर रहा है. उन गरीबों की जवाबदेही नवीन पटनायक जी के अलावा मनमोहन सिंह जी की भी है. यह उनके रनडाउन में होगा? मनमोहन जी की दो यात्राओं के दौरान विदर्भ में एक हजार से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं. क्या उनके चैनल पर ऐसे किसी किसान की आत्महत्या कहानी बनेगी? कोई इलाका पानी के लिए तरस रहा है, कहीं आज तक बिजली नहीं पहुंची है. कहीं अस्पतान नहीं है तो कहीं डॉक्टर जाते ही नहीं हैं. चुनौती आतंकवादियों के साथ-साथ नक्सलियों की भी है. खबर तो यह सब भी है.
मुझे इस बात का भी अंदाजा है कि ऐसे कार्यक्रम को पर्याप्त दर्शक नहीं मिलेंगे लेकिन टीआरपी की ज़ंग में वे यह साहस दिखा पाएंगी. यह सवाल इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि उनका मुकाबला गंभीर और साहसी एनडी़टीवी, आक्रामक आईबीएन7, मध्यमार्गी आजतक और मनोरंजन प्रधान जी न्यूज, स्टार न्यूज, इंडिया टीवी से होगा. ज़ंग और प्यार में अगर नाजायज चीजें भी जायज होने लगें तो इससे देश की ज्यादातर आबादी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीवी वाले आपातकाल में क्यों नहीं थे. आप उस वक्त नहीं थे, इसलिए क्रांति हो सकी. नहीं तो वह आंदोलन भी रंगीन, हंसी और अच्छी-अच्छी खबरों के बीच दब गया होता. आप सारे आज एकजुट होकर यही तो कर रहे हैं...
8 comments:
बहुत बढ़िया लिखा है बंधु
हे मित्र आपको पूरा पढा. अच्छा लगा. लेकिन मेरी भी एक सलाह मानिए. टीवी चैनलों को लेकर गम्भीर बहस में नहीं पडना चाहिए. वरना बताइए, हम अगम्भीर कब होंगे?
दो परम टिप्पणीकारों के बाद तीसरा नंबर मेरा है. आपकी फोटो ने तो डरा ही दिया था. गोया स्क्रीन फाड़कर बाहर निकली आती है.
थेथरई की कोई लक्ष्मणरेखा नहीं होती. नाचीज की सलाह मानें तो......नहीं.........अभी कोई सलाह नहीं....
बहुत ही उम्दा लेख। राजदीप सरदेसाई के बारे में जो आपने लिखा सत्य प्रतीत होता है।
साधूवाद
॥दस्तक॥
गीतों की महफिल
बहुत बढ़िया लिखा है.
राजदीप को मेरा जवाब : काहे हाय तौबा मचाये हो कंटेंट बिल् को लेके? जब तुम्हारा पत्रकार जनता के सवालों पर पार्टी नहीं बनना चाहता, तो जनता को पार्टी क्यों बनाना चाहते हो इस बिल के मुद्दे पर ?
तुम दस पत्रकार समझते हो कि मिलकर सरकार का मुक़ाबला कर लोगे ? बिना पब्लिक के ?
बिल का विरोध तो दमदार तभी होगा जब पब्लिक बोलेगी.
और जब तुम पब्लिक के साथ नहीं खडे होना चाहते ( सिर्फ फोटो खींचकर इस्तेमाल करना चाहते हो) तो पब्लिक तुम्हारे साथ क्यों खड़ी होगी भला ?
यौ बाबू.. अपने तँ गुणी जन बुझाय रहल छी.. बड़का-बड़का लोक सब पर टिप्पणी कय रहल छी.. करू-करू... लेकिन ई खटराग जे अहाँ बाँचलौं य.. ई टीभी समाचार के कर्ता-धर्ता तक कोना पहुँचतइ.. आ पहुँचियौ जेतइ त एकरा सबके समझ में एतइ थोड़हिक... एकरा सबकह दासमुँशिए जी ठीक करथिन्ह... चलाइबै जथिन बिजनेस आ बजाबैत छथिन गाल कि भैर दुनिया के लोकतंत्रक ठेका हिनके सबलग छइन... दासमुंशी जी... दादा तोहर भला हो... इन गाल बजाबइबला सबहक गाल लाल कर दीजिए...
रीतेश बाबू.. आब लोकतंत्रक अई सँ बैढ़ क विडंबना की भ सकै छै कि हमरा-अहाँ सनहक आम आदमी, या पाठक, दर्शक कैह लियौ, हम सब आजिज आबि के ई थेथरहा सब पर लगाम लगाबइ लेल आतुर छी... जिनका सब पर जनता कँ सामाजिक, राजनीतिक रूप सँ जागरूक करइ के जिम्मा छइन ओ सब ओकरा अंधविश्वास, अश्लीलता, आ मिथ्या-भ्रामक सूचना परइस रहलखिन्ह य...
आब कोन मूँह सँ ई सब बजताह.. आब तँ जनता के आम राय तक हिनकर खिलाफ जाय के स्थिति उत्पन्न भ गेल अछि.. हिनकर सबहक गैर-जिम्मेदाराना रवैया के चलतहि आय हिनका सबकँ ई दिन देखअ पइड़ रहल छैन.. जेहने करतिन्ह, तेहने न भरतिन्ह..
कुछ नहीं कहना चाहूंगा...मैं भी तो उसी 'चैनलई निर्लज्जता' की कमाई खा रहा हूं जिसकी आपने खोल-खुलकर चर्चा की।
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