Sunday, January 20, 2008

नौ साल बाद कोई चिट्ठी लिख रहा हूं...

प्रिय प्रभाकर जी,

आशा है आप सपरिवार अच्छे से होंगे. संजय भैया और सरजमीं परिवार भी ठीक-ठाक होगा. अशांत जी स्वस्थ होंगे.

मोबाइल पर आपने बताया कि सरजमी के गणतंत्र दिवस विशेषांक के लिए कुछ लिखना है. लिखने के इस न्योते की जो खुशी मुझे हो रही है, उसे मैं बयां नहीं कर सकता. मैंने भी अपने करिअर की शुरुआत आपके ही अखबार से की थी.

आज जब मैं घर से, अपने शहर से, आप सबसे दूर हूं, तब भी आप लोगों का ये स्नेह और प्यार भावुक कर देता है. मुझे क्या लिखना चाहिए, यह सोचने और तय करने में एक सप्ताह लग गया.

और मैंने यह तय किया है कि गणतंत्र दिवस या बेगूसराय के बारे में कुछ बघारने से बेहतर यह लिखना होगा कि जो लोग पढ़ने के लिए या काम की तलाश में बेगूसराय से बाहर निकलना चाहते हैं, उन्हें फौरी तौर पर खुद में क्या बदलाव लाना चाहिए.

इससे पहले की कुछ काम की बातें कहूं यह जरूर बताना चाहूंगा और इसके लिए आपको धन्यवाद भी देना चाहूंगा कि करीब नौ साल बाद मैं कुछ भी चिट्ठी के तौर पर लिख रहा हूं. डाकघर गए इससे भी ज्यादा समय बीत चुके हैं और अब मैं अपने मोहल्ले के डाकिए को भी नहीं पहचानता. अंतिम चिट्ठी मैंने एक प्रकाशक को कानूनी नोटिस को लेकर लिखा था.

अब बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं. मां से, पापा से, चच्चा से, पाठक चा और श्याम चा से... और आपसे भी, मोबाइल पर ही बातें हो जाती हैं. जितनी बातें हम कुछ मिनटों में कर लेते हैं, अगर उसे लिखना होता तो पता नहीं कितने पन्नों पर उंगलियां घिसनी पड़तीं और उस संवाद को पूरा होने में कुछ महीने जरूर जाया हो जाते.

हो तो यह भी सकता था कि आपका विशेषांक छपने के बाद मेरा लेख पहुंचा ही होता. तकनीक ने कई चीजें बदल दी है. हमारा-आपका काम भी इससे अछूता नहीं है. इसलिए हम सबको भी तेजी से बदलने के लिए तैयार रहना चाहिए.

दिल्ली में पत्रकारिता के अलावा भी कई तरह के काम हैं जिससे लोग घर-परिवार का खर्च उठाने लायक कमा सकते हैं. मैं बात सिर्फ दिल्ली की करुंगा लेकिन आप दिल्ली की बजाय मुंबई, चंडीगढ़, जयपुर, कानपुर, भोपाल के लिए भी इन बातों को बराबर ही मान कर चलें.

बेगूसराय की पत्रकारिता और दिल्ली की पत्रकारिता में सबसे बड़ा अंतर यह है कि वहां आप हिन्दी की खाते हैं और हिन्दी की ही गाते हैं. हमारे साथ हिन्दी का खाना तो ठीक है लेकिन गाना अंग्रेजी का पड़ता है. हिन्दी के अखबारों या चैनलों में नौकरी देने से पहले जो परीक्षा ली जाती है, उसमें संपादक लोग अंग्रेजी की ही परख करते हैं.

हिन्दी प्रेम में बहे बिना यह भी साफ कर दूं कि इसका एक व्यवहारिक कारण यह है कि यहां देश और दुनिया के हरेक हिस्से की खबर आती है। हमें उन खबरों से जूझना होता है. अब अमेरिका वाले या चेन्नई वाले हमारी लिए हिंदी में तो लिखेंगे नहीं. लेकिन हमें अपने पाठकों के लिए उनकी अंग्रेजी को समझकर हिन्दी में ही लिखना होगा.

इसलिए आप जागरण में आएं या हिन्दुस्तान में जाएं, अंग्रेजी की अग्निपरीक्षा से तो गुजरना ही होगा. और अगर अंग्रेजी ठीक नहीं हो तो हिन्दी का आपका सारा ज्ञान संपादकों के लिए बेकार की चीज है. हिन्दी में विकलांग भी हों लेकिन अंग्रेजी से स्वस्थ हों तो संपादक मौका दे सकता हैं.

इसलिए अगर आप या आपका कोई परिचित दिल्ली आने की तैयारी कर रहा हो तो उसे कुछ अंग्रेजी अखबार और अंग्रेजीदां मास्टर साहब की संगत डाल लेनी चाहिए.

दिल्ली में पत्रकार सिर्फ हिंदी में बोलते और लिखते हैं, सुनने और पढ़ने का ज्यादातर काम अंग्रेजी में ही करना पड़ता है. मैं भी बिना अंग्रेजी अखबार पढ़े दिल्ली आ गया था लेकिन किस्मत से उस जगह पहुंच गया जहां से निकलने के बाद किसी ने उस कमजोरी पर हाथ नहीं दिया। नहीं तो हर रोज देखता हूं कि मेरे संपादक दो-चार लोगों को इकोनॉमिक टाइम्स या टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर का अनुवाद करने देते हैं और उसे देखने के बाद कहते हैं कि इसमें अनुवाद की कुल 26 गलतियां हैं और मात्रा के 32 दोष हैं।

इसे ठीक किए बिना भी कहीं-कहीं और कभी-कभी दिल्ली में नौकरी मिल जाती है. लेकिन वह बस नौकरी ही रह जाती है. तरक्की, सम्मान और दूसरी चीजें कभी नहीं मिल पातीं.

तो पहली बात हिन्दी और अंग्रेजी को साथ लेकर चलने की रही.

दूसरी बात यह है कि दिल्ली आने से पहले कुछ काम उच्चारण पर भी कर लें तो ढ़ेर सारी बेवजह की फजीहत से बच जाएंगे. मेरी ही बात लीजिए. मैं आज तक अपना नाम सही से नहीं ले सका हूं. जब मैं रीतेश बोलता हूं तो असल में रीतेस बोल रहा होता हूं. दिल्ली के लोग ऐसा नहीं बोलते. चंडीगढ़ वाले भी शुद्ध बोलते हैं.

आदरणीय गुरुजनों से एक अनुरोध है कि अगर वे कुछ कर सकते हैं तो कम से कम पहली-दूसरी से ही बच्चों के उच्चारण पर कुछ ध्यान जरूर दें. नहीं तो सारी पढ़ाई पर उस समय शर्म आती है जब मैं अपना नाम भी सही से नहीं बोल पाता हूं. मेरे उच्चारण में सिर्फ इसलिए दोष नहीं हो सकता कि मैं बेगूसराय में पैदा हुआ हूं. अगर चंडीगढ़ के लोग सही बोल सकते हैं तो हम भी बोल सकते हैं.

इसलिए मेरा तो यही मानना है कि परवरिश और पढ़ाई में ही कुछ ढ़िलाई रह गई होगी कि यह कमी दूर नहीं हो सकी. गुरुजी लोगों को यह काम तो करना ही चाहिए.

और आखिरी बात, बेगूसराय में तो बड़ी संख्या में नौकरी है नहीं. शहर छोड़ना ही होगा. सरकार के पास नौकरी देने की कोई ठोस योजना एक तो है नहीं और अगर है भी तो जनसंख्या के लिहाज से वह बड़ी आबादी के काम की नहीं है.

अगर आप इंजीनियर, डॉक्टर, सीए, वकील या किसी खास पेशेवर डिग्री से लैस नहीं हैं तो दिल्ली, मुंबई या ऐसे ही बड़े शहरों में जो नौकरियां हैं उसमें कॉल सेंटर और इंटरनेट पर कारोबार कर रही कंपनियों का ही योगदान है. इंटरनेट और कॉल सेंटर का कोई भी कारोबार बिना अंग्रेजी के चल नहीं सकता. इसके लिए कम्प्यूटर की भी ठीक-ठाक समझ होनी ही चाहिए. ये नौकरियां अब पटना तक भी पहुंच रही हैं लेकिन उसकी पात्रता नहीं बदली है.

नौकरी आप कहीं करें, जिस तरह की नौकरियां अब बाजार में हैं, उसमें अंग्रेजी और शुद्ध उच्चारण के बिना गुजारा नहीं है.

इसलिए गणतंत्र दिवस के मौके पर आरएस गवई साहब क्या बोलते हैं, नीतीश कुमार क्या कह रहे हैं, राजीव रंजन सिंह क्या कहना चाहते हैं, संजीव हंस क्या बताना चाहते हैं... आपके लिए किसी काम की नहीं है. इस दिन का हमारे और आपके लिए सही इस्तेमाल यही है कि हम अंग्रेजी और हिन्दी के साथ कोई भेदभाव किए बिना कल से पढ़ने की कोशिश शुरू कर दें. कोई गलत बोल रहा तो तो उसे उच्चारण ठीक करने की सलाह दें, सुधारने के तरीके बताएं और पहली गाड़ी पकड़ कर जहां भी नौकरी मिल रही है, उसे झटकने के लिए चल पड़ें.

इस बीच मैंने इंटरनेट पर गूगल में बेगूसराय का न्यूज अलर्ट लगा लिया है. अच्छी चीजें तो खबरों की परिभाषा से बाहर कर दी गई हैं. जब वहां खून होता है, गोली चलती है, बांध टूटता है, सचमुच कोई "खबर" बनती है तो मेरा जीमेल आपके फोन से पहले मुझे बता देता है कि कुछ हो गया है. यही तकनीक है और उसकी ताकत भी. आप भी इस ताकत को महसूस करें और दूसरों को भी ताकतवर बनने की सलाह दें.

बाकी बातें मोबाइल पर करेंगे. आपके अखबार की एक प्रति पाने का अधिकारी हूं, बस इसे याद रखिएगा. विशेषांक बेहतर हो और सफल हो, मेरी शुभकामनाएं हैं.

आपका
रीतेश
20-01-2008

1 comment:

ghughutibasuti said...

नौ साल बाद ही सही परन्तु चिट्ठी बढ़िया रही और खरी खरी बात आपने बता दीं । बिहार की तीन साल की पढ़ाई पाँच तक खिंचने के बारे में देख रखा है । बड़े आश्चर्य की बात है कि बिहारी जब किसी और प्रदेश में जाते हैं तो बहुत सफल रहते हैं , फिर अपने प्रदेश को क्यों ठीक नहीं कर पाते ।
घुघूती बासूती