Tuesday, April 1, 2008

तिब्बती काम और भारतीय कारनामे...

सुरक्षा परिषद में जाकर क्या कर लेगा इस तरह का भारत...
 
तिब्बत की राजधानी ल्हासा में कुछ हफ्तों से तेज हुए चीनी दमन के बावजूद तिब्बतियों का हौसला न तो टूट रहा है और न ही दुनिया के दूसरे देशों में चीन विरोधी प्रदर्शन करने का उनका साहस जवाब दे रहा है. हमने भी इसी जोश और ताकत से आजादी हासिल की होगी.

 

अलबत्ता, भारत सरकार के विवेक ने जवाब दे दिया है. महाशक्ति, सुरक्षा परिषद का सदस्य जैसे न जाने कितने सपने हमने संजो रखे हैं. लेकिन लोकतंत्र की मांग कर रहे एक विस्थापित कौम के लोकतांत्रिक आंदोलन को टुकुर-टुकुर देखने वाला देश आखिर सुरक्षा परिषद में पहुंच कर दुनिया को क्या दे पाएगा?
 
और, ऐसी कमजोर विदेश नीति वाली सरकारों का देश सुरक्षा परिषद में पहुंच भी जाए तो चीन और अमेरिका की मनामनियां रोकेगा कौन? भारत के रूप में तो शायद उन्हें अपनी मनमानी पर एक और वोटर मिल जाएगा.

 

पाकिस्तान को ही लीजिए. वहां के लोग अमेरिका के बारे में अच्छी राय नहीं रखते हैं लेकिन सरकारें अमेरिका से अच्छे संबंध के नाम पर बहुत कुछ कुर्बान करती रही हैं. भारतीय मामला पाकिस्तान की तरह का तो नहीं है लेकिन हम पूरी तरह से ब्रिटिश भी नहीं है.

 

भारत ने तिब्बतियों को राजनीतिक शरणार्थी का दर्जा दे रखा है और भारत में उनके लिए सहानुभूति है. इसलिए स्वाभाविक है जब चीनी जवान ल्हासा में गोली-लाठी चला रहे हैं तो कुछ न कुछ दर्द तो यहां के लोगों को भी हो ही रहा है. सरकार में बैठे लोगों को भी चीनी कार्रवाई नहीं भा रही है लेकिन उनका कुछ न बोलना हम जैसे लोगों को सुहा नहीं रहा है.

 

दलाई लामा के नेतृत्व में तिब्बत से भागे लोगों के संघर्ष का पांच दशक पूरा होने ही वाला है. चीन में मीडिया कितनी मुक्त है, यह तो सबको पता है. बेचारे तिब्बतियों ने सोचा कि बीजिंग में ओलंपिक पर जब दुनिया नजर गड़ाएगी तो इस दौरान होने वाले आंदोलन पर भी उनकी नजर जाएगी. यही सोच है जिसके साथ पिछले कुछ दिनों से दुनिया भर में तिब्बती प्रदर्शन कर रहे हैं.

 

अपने लिए आजादी मांगना, स्वायत्तता मांगना, तिब्बत के मामलों में दखलअंदाजी का अधिकार मांगना, अपनी संस्कृति को बचाने की लड़ाई लड़ना उनका मक़सद है. और तिब्बती इसे कर रहे हैं तो यह उनका काम है.
 
चीन जो कर रहा है, उसने कोई पहली बार नहीं किया है कि दुनिया चौंक जाए. ये उसकी आदत है और फितरत भी. तिब्बत ही क्या, उसके दमन की कहानी दूसरे चीनी प्रांतों में भी है. लेकिन वहां के पत्रकारों को दुनिया के लोगों को यह बात बताने की इजाजत नहीं है. चीन जो कारनामे कर रहा है, वह न तो पहली बार दिख रहा है और न आखिरी बार.
 
भारत जैसा पड़ोसी और अमेरिका जैसा व्यापारिक साझीदार जिसके साथ हो, वह ऐसे कारनामे बार-बार न दुहराए तो क्या करे. चीन को पश्चिमी देश नसीहत से आगे कुछ नहीं दे सकते. महाबलियों के पास भी इतना ही साहस है कि वे ईरान और सीरिया जैसे छोटे देशों को ही धमिकयां दे सकें.
 
अपने देश के वामपंथियों को देखिए जो ईरान, इराक और न जाने किन-किन देशों की समस्या को लेकर सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं और सड़कों पर हंगामा करते हैं लेकिन देश की सीमा से लगे तिब्बत में आजादी या स्वायत्तता की लड़ाई उन्हें नजर ही नहीं आती है.
 
भला हो कि प्रकाश करात और सीताराम येचुरी को जनता ने अभी तक सरकार बनाने का मौका नहीं दिया है नहीं तो ये लोग कब का दलाई लामा को अपने समर्थकों के साथ भारत छोड़ने के लिए मजबूर कर देते. वैसे ही, जैसे तस्लीमा को किया. ये कुछ नहीं करते, लोग खुद समझ जाते हैं कि उनके लिए क्या करना बेहतर होगा.
 
भारत ने देश के अलग-अलग हिस्सों में प्रदर्शन और तिब्बत मार्च पर निकले शरणार्थियों को गिरफ्तार किया. आगे बढ़ने से रोका. जब दुनिया भर के देश चीन से धैर्य से काम लेने और दलाई लामा से वार्ता करने की अपील कर रहे थे तब भारत हालात पर "गहरी नजर" रखे बैठा था.
 
चीनी दूतावास में तिब्बतियों के घुसने पर आधी रात बीजिंग के विदेश मंत्रालय में भारतीय राजदूत को बुलाने के बाद दलाई लामा से भारतीय उपराष्ट्रपति की मुलाकात रद्द कर दी गई. और, उसके एक सप्ताह बाद वाणिज्य मंत्री कमलनाथ की बीजिंग यात्रा टालकर यह संकेत देने की कोशिश की जा रही है कि वह भारतीय राजदूत निरूपमा राव को आधी रात बुलाने से नाखुश है.
 
ये कैसा ड्रामा है सरकार चलाने वालों. पहले तो हामिद अंसारी को दलाई लामा से मिलने से रोक दिया और बाद में कमलनाथ को रोककर साबित करना चाहते हो कि हम चीन से नाराज भी हो सकते हैं. भारत के पास इतना साहस है लेकिन उसकी सरकारों के पास नहीं. हामिद अंसारी से दलाई लामा की मुलाकात का कोई राजनीतिक महत्व मुझे तो नजर नहीं आता. चीन के लिए भले यह कूटनीतिक प्रतिष्ठा का सवाल रहा होगा.
 
तिब्बती भारत से दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के नाते मुंह खोलने की अपील कर रहे हैं लेकिन सरकार चुप है. पता नहीं चीन किन संबंधों की दुहाई देकर भारत को दबाव में लेने में कामयाब हो जा रहा है. उससे हम एक बार लड़ चुके हैं. सीमा विवाद इतने गहरे हैं कि भारतीय प्रधानमंत्री को अपने देश में ही यात्रा करने पर कूटनीतिक गर्मी का अहसास करा दिया जाता है. हमारे छोटे-बड़े उद्योंगों के असली उत्पादों की चीनी नकलचियों ने कमर तोड़कर रख दी है.
 
किस मधुर संबंध का लोभ और संबंधों में कौन से सुधार का मोह है जो चीन से भारत यह नहीं कह सकता कि दलाई लामा की बात सुनो. और अगर यह कहने से चीन नाराज होता है तो लोकतंत्र की रोशनी फैलाने वाले भारत को ऐसे किसी मित्र की जरूरत नहीं होनी चाहिए. पड़ोस में हैं, औपचारिक व्यापार करें, आएं-जाएं...
 
तिब्बतियों के आंदोलन को नैतिक समर्थन देने वाला कोई देश चीन का दुश्मन नहीं बन गया है और न ही चीन ने उस पर हमला बोल दिया है. हमारे साथ ही कोई दुर्घटना होगी, यह सिर्फ मनमोहन सिंह की आशंका है. हमारा तो यकीन है कि भारत जब लोकतंत्र की बात अंग्रेजों से कर सकता है तो चीन से भी वह तिब्बती स्वायत्तता की बात कर सकता है. पंचशील समझौते की बेड़ियों ने जब चीनी को हमला करने से नहीं रोका तो हम कब तक तिब्बत को उसका घरेलू मामला मानते रहेंगे.

1 comment:

दीपान्शु गोयल said...

अपनी आजादी के लिए तिब्बतियों की जिजिविषा काबिले तारीफ है। भारत सरकार को भी इससे सबक लेकर तिब्बत के समर्थन में आगे आना चाहिए। चीन ने भारत के काफी बडे भू भाग पर कब्जा कर रखा है उसे वापस लेने का जज्बा सरकार को दिखाना चाहिए।