Saturday, March 8, 2008

और क्या कहें, राजधानी की सुनें...

ट्रेनों के लेट होने से खाने-पीने को तरस गए यात्री

पावर लाइन ट्रिप करने से करीब सौ ट्रेनों में सफर कर रहे यात्रियों पर बिजली गिर पड़ी. दिल्ली आ रही गाड़ियां सुबह से ही रेंग रही थीं. रेलमंत्री लालू प्रसाद के शब्दों में कहें तो 'सामाजिक न्याय' सा माहौल लग रहा था. क्या राजधानी, क्या विक्रमशिला और क्या आम्रपाली, सब आसपास, एक गति से, लय मिलाकर, एक के पीछे एक चल रही थीं.

रेल की बात कर रहे हैं तो उस ट्रेन की बात करते हैं जिसे पटरियों पर 'विशेषाधिकार' प्राप्त है. राजधानी एक्सप्रेस. गाड़ियों की लेटलतीफी में उस राजधानी का हाल सुनिए जो रेलमंत्री के सूबे (पटना) से दिल्ली आ रही थी. इसे नई दिल्ली रेलवे स्टेशन सुबह दस बजे के आसपास पहुंच जाना था लेकिन उस वक्त वह उत्तर प्रदेश के किसी वीरान इलाके में हिचकोले खा रही थी.

सेकेंड एसी के कोच ए-4 का नजारा. एक युवक ट्रेन अधीक्षक से बार-बार दिल्ली पहुंचने की स्थिति पूछ रहा था. जब दोपहर के एक बजे तो उसने वहा में गुरजते एक जहाज को देखकर कहा, 'लगता है मेरी फ्लाइट छूट गई.' इस नौजवान को अहमदाबाद जाना था.

बिहार में निजी क्षेत्र की शीर्ष डेयरी गंगा डेयरी के एमडी अखिलेश कुमार बार-बार स्टेट बैंक के एक महाप्रबंधक को फोन लगा रहे थे. बड़ी मुश्किल से उन्हें शुक्रवार को महाप्रबंधन ने मिलने का समय दिया था. इस क्षेत्र में मिलने वाली सरकारी सहायता राशि के लंबे समय से लंबित भुगतान के लिए वे दिल्ली आए थे. अपराह्न दो बजे के बाद वे नई तारीख लेने की कोशिश करते दिखे.

भाजपा नेताओं की एक टीम अध्यक्ष राजनाथ सिंह से मिलने आ रही थी. विधान पार्षद गिरिराज सिंह, प्रदेश उपाध्यक्ष लालबाबू प्रसाद और महासचिव मंगल पांडेय लगातार राजनाथ के निजी कर्मचारियों से संपर्क बनाए थे. विधान परिषद की सीटों के लिए चुनाव के मद्देनजर ये दिल्ली आए हैं. अब राजनाथ इनसे शनिवार को मिलेंगे.

इसी तरह किसी का ऑफिस छूट गया, किसी की बैठक छूट गई. कुछ न कुछ तो हर किसी का छूटा.

ट्रेन अधीक्षक की खोज हुई. पता चला श्रीमान पैंट्रीकार में पूड़ी बना रहे हैं. उनसे पूछा तो कहा कि अलीगढ़ से पानी और खाना का सामान लेने के लिए आर्डर दिया गया है. शाम में पता चला कि पैंट्री के मैनेजर ने आर्डर रद्द करवा दिया. फिर शुरू हुई शिकायत पुस्तिका की खोज ताकि यात्री अपना गुस्सा दर्ज कर सकें.

यात्री सुविधाओं की बात करें तो दोपहर होते-होते खाना खत्म, पानी खत्म, चाय भी नहीं. हील-हुज्जत के बाद ढाई-तीन बजे के आसपास चावल और दाल दिया गया. दोनों को एक साथ मिला दें तो खिचड़ी भी शर्मा जाए. लोग इसे भी खा गए. भूख तो ऐसी ही होती है. लेकिन खाने के बाद पानी नहीं. मांगा तो भी नहीं दिए. पैसे दिए तो भी नहीं.
इस दौरान ट्रेन कितनी जगह रुकी, गिनती नहीं की जा सकती. पटरियों के आसपास से जैसी-तैसी चीजें खरीदकर लोगों ने भूख मिटाई लेकिन राजधानी वालों ने कुछ नहीं दिया. तारीफ कीजिए विक्रमशिला के पैंट्री स्टाफ की जो अपने यात्रियों के लिए एक खेत से आधा क्विंटल आलू खरीद लाया ताकि देरी से परेशान यात्री कुछ तो खा सकें.
साभारः- आज समाज, 8 मार्च, 2008

1 comment:

Udan Tashtari said...

आलेख के लिये आभार. विक्रमशिला का पेन्ट्री स्टाफ तो बहुत अच्छा निकला...बहुत तारीफ का काम किया./