Sunday, December 30, 2007

सहारा समय ने बनाया फ़हीम को बेनज़ीर का वारिस...

सहारा समय परिवार के वारिसों को या तो यह नहीं मालूम है कि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने किसे बेनज़ीर भुट्टो का राजनीतिक वारिस चुना है या फिर लरकाना की जिस बैठक के बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता मख़दूम अमीन फ़हीम ने ख़ुद पत्रकारों से कहा कि बेनज़ीर के इकलौते बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी को उनलोगों ने अपना नया अध्यक्ष चुन लिया है, उसमें सहारा समय का कोई ख़ास सूत्र मौज़ूद था.


रात के बारह बज़े जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं तब तक पूरी दुनिया की हरेक साइट इस बात को दिखा और बता रही है कि बिलावल को बेनज़ीर का राजनीतिक वारिस चुन लिया गया है.

बेनज़ीर ने अपनी वसीयत में पति आसिफ अली ज़रदारी को उत्तराधिकारी मनोनीत किया था लेकिन बैठक में ख़ुद ज़रदारी ने ही बिलावल के नाम का प्रस्ताव रखा और पार्टी के तमाम बड़े नेताओं ने उसका अनुमोदन कर दिया.

अलबत्ता, पार्टी ने 19 साल के बिलावल की उम्र और उसकी पढ़ाई का ख्याल करते हुए पार्टी में दो सह-अध्यक्ष बनाए हैं. एक तो बिलावल के पिता और बेनज़ीर के पति आसिफ अली जरदारी हैं और दूसरे वो फ़हीम साहब, जिन्हें सहारा समय परिवार पीपीपी की क़मान थमा रहा है. हाँ, पार्टी ने ये कहा है कि अगर जनवरी में चुनाव हों और वह जीत जाती है तो इस वक़्त प्रधानमंत्री के उम्मीदवार फ़हीम साहब होंगे.

ख़बरें तो इससे आगे पहुँच चुकी हैं. बैठक के बाद बिलावल के अध्यक्ष चुने जाने की घोषणा के दौरान आसिफ अली जरदारी ने पीपीपी के चुनाव में हिस्सा लेने का निर्णय सुनाया और नवाज़ शरीफ़ से भी चुनाव में भाग लेने की अपील की.

नवाज़ की पार्टी के कुछ नेताओं ने देर रात बयान दिया है कि वे भी 8 जनवरी के चुनाव में हिस्सा लेंगे. ये और बात है कि पीएमएल क्यू और ख़ुद राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ शायद चुनाव को टालने का विचार रखते हों.

पता नहीं, सहारा समय का समय ख़राब चल रहा है या ख़बरों को इसी तरह से पेश कर वह ख़ुद को सबसे अलग साबित करना चाहता है.

आप भी पढ़ें ये ख़बरें......

अंग्रेज़ी साइटः-http://www.saharasamay.com/samayhtml/articles.aspx?newsid=91883

हिन्दी साइटः-
http://www.saharasamay.com/flash/hindi/#fullstory?id=110079

Thursday, December 27, 2007

कोई कह दे कि ये सच नहीं है...

कभी-कभी ऐसा होता है कि किसी नेता के चले जाने की ख़बर पर यक़ीन नहीं होता. जी में आता है कि कोई कह दे कि ये सच नहीं हैं. आज एक बार फिर दिल ऐसी ही बातें कर रहा है.लेकिन कोई कहता भी नहीं है कि रावलपिंडी में 27 दिसंबर को जो हादसा हुआ, उसके हताहतों में बेनज़ीर भुट्टो नहीं हैं.

ऐसा इससे पहले राजीव गाँधी और प्रमोद महाजन के चले जाने पर महसूस हुआ था. लगता है कि मेरे बाप-दादा के घर के किसी पड़ोसी की हत्या हो गई है. लेकिन कड़वा सच यही है कि बेनज़ीर भुट्टो नहीं रहीं. मुशर्रफ़ के बयान आने तक मुझे भरोसा नहीं हो रहा था. चुनाव तैयारियों में आगे बढ़ रही बेनज़ीर के क़दम दरिंदों ने रावलपिंडी की एक सभा के बाद थाम लिए. लोकतंत्र की बहाली का जो काम बेनज़ीर अधूरा छोड़ गई हैं, वहां के लोग अग़र उसे पूरा नहीं कर पाए तो यह उस चमत्कारी नेता की शहादत का अपमान होगा.

वे हमारे बीच नहीं हैं. मैं तो अनुमान भी नहीं लगा सकता कि उस देश के लोगों पर क्या बीत रही होगी जिन्हें बेनज़ीर में अपना बेहतर भविष्य नज़र आ रहा था. राजीव जी, महाजन जी और बेनज़ीर जी को किसी न किसी हत्यारे ने हमसे छीना. तीनों कई तरह के विवादों में रहे लेकिन अपनी पीढ़ी के बीच उनका होना किसी सपने के पूरे होने की उम्मीद कायम रखता था. पाकिस्तान के लोगों से आतंकियों ने सिर्फ बेनज़ीर को नहीं छीना है बल्कि उनके बेहतर कल की उम्मीदें छीनी हैं. यह देश कल कैसा होगा, कैसे बढ़ेगा, इस पर क़यास लगाना फ़िजूल है क्योंकि मैंने सुना है कि वहां एक कहावत चल पड़ी है कि "देश का क्या होगा, यह सिर्फ अल्लाह को या मुशर्रफ को मालूम है."

भारत ने भी पड़ोस में एक ऐसा नेता खोया है जिसे वहां के दूसरे नेताओं से ज़्यादा भरोसा हासिल था. मेरी शत-शत श्रद्धांजलि....

Tuesday, September 18, 2007

थेथरई की भी कोई लक्ष्मणरेखा होती है भला...!

आदरणीय श्री राजदीप सरदेसाई जी, श्री कमर वहीद नकवी जी और सम्मानित श्रीमती अनुराधा प्रसाद जी से व्यक्तिगत तौर पर क्षमा के साथ क्योंकि मेरी राय पूरी तौर पर व्यक्तिगत है और उनके संपूर्ण व्यक्तित्व के मात्र एक पहलू पर है। पत्रकारिता में उनका व्यापक योगदान है और उसका मैं भी बहुत सम्मान करता हूं.

कंटेंट कोड और आचार संहिता के बहस में पड़े बिना टीवी चैनलों को लेकर मेरी कुछ निजी राय है। सर्कस रिंग के बाहर के दर्शक को ताली और गाली दोनों का अधिकार है. मेरी राय को आप इस तरह भी ले सकते हैं. कोई परवाह करे, न करे, कहने या बकने के मेरे अधिकार से मुझे वंचित नहीं किया जा सकता. वैसे भी प्रेस वाले जिस संविधान का हवाला देकर जो जी में आए, दिखा और बता रहे हैं, और इस अधिकार को बचाए रखने की कोशिश कर रहे हैं, वही संविधान सबसे पहले नागरिक को बोलने की आजादी देता है. दो-तीन दिन पहले दूरदर्शन पर देर रात टेलीविजन चैनलों के बड़े-बड़े बहसबाज इस बात पर रायशुमारी कर रहे थे कि कंटेंट कोड बन गया तो क्या-क्या हो जाएगा। कोई कह रहा था कि पहाड़ टूट पड़ेगा. किसी का मानना था कि प्रलय आ जाएगा.


इससे थोड़ी देर पहले ही उसी रात एनडीटीवी पर भी ऐसे ही कुछ दिग्गज लोग इस बात पर उलझ रहे थे कि आखिर दर्शक देखना क्या चाहता है. एनडीटीवी पर पंकज पचौरी जी बहस को संभाल रहे थे तो दूरदर्शन पर आलोक मेहता जी. दूरदर्शन वाली बहस में एनडीटीवी पर ऐसी ही बहस करवा चुके पचौरी साहब भी मौजूद थे. मुद्दे की बात यह है कि आलोक जी वाली बहस में राजदीप जी और अनुराधा जी और एनडीटीवी वाली बहस में नकवी जी ने जो बातें कही, उस पर मेरी गहरी और तीखी आपत्ति है। इन तीनों के कहे-सुने पर कुछ कहूं, इससे पहले प्रभु चावला जी के उस सवाल से अपनी सहमति और एकजुटता पेश करना चाहता हूं, जिसे आलोक जी ने अनसुना कर दिया.


चावला जी ने बस इतना कहा था कि सामाजिक जवाबदेही को लेकर जिस कंटेंट कोड की बात चल रही है, उसका पूरा लक्ष्य सिर्फ न्यूज के चैनल ही क्यों हों. इस भार को स्टार सरीखे उन चैनलों को भी उठाना चाहिए जो अपनी गल्पकथाओं में एक महिला की कई-कई शादियां करवा रहे हैं. लेकिन चूंकि ज्यादातर लोग समाचार चैनल से थे, इसलिए चावला जी की बात को आलोक जी ने आगे नहीं बढ़ाया या फिर बढ़ने नहीं दिया. इस बात की झल्लाहट चावला जी के चेहरे पर साफ तौर पर दिख रही थी लेकिन बहस में मौजूद अधिकांश लोग तो न्यूज चैनल पर तीर चलाने या चैनलों का पक्ष लेने के लिए तैयारी करके पहुंचे थे. और, यह बात भी टीवी चैनल वालों के नक्कारखाने में गुम हौ गई.


राजदीप जी की बात...


पटियाला में एक आदमी के आत्मदाह वाली खबर पर दर्शक दीर्घा से एक सवाल आया था कि क्या पत्रकार का काम यह नहीं था कि वह उस आदमी को जान देने से रोकता या आग लगा लेने के बाद कैमरा रखकर उसे बचाने की कोशिश करता। अलबत्ता, दर्शक का कहना था कि पत्रकार उसे उकसा रहे थे। राजदीप जी का कहना रहा कि पत्रकार पार्टी नहीं बनता है। वह सिर्फ और सिर्फ पत्रकार है. जो हो रहा है, बस उसे बताता और दिखाता है. खबर से आगे-पीछे उसकी कोई जवाबदेही नहीं बनती. अगर वह खबर को खबर के तौर पर देखने के बजाय किसी और नजरिए से देखने लगा तो खबर बन ही नहीं पाएगी. और, फिर दुनिया को यह पता नहीं चल पाएगा कि हालात कुछ ऐसे हो गए थे कि सरेआम खुदकुशी के अलावा पटियाला वाले के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था.


मेरा कहना है कि...

दो-तीन दिन पहले ही एक स्टिंग ऑपरेशन को लेकर नोएडा के एक डॉक्टर साहब ने आईबीएन7 पर मुकदमा दर्च कराया है। मुकदमे में एक वादी होता है और दूसरा प्रतिवादी. आईबीएन7 प्रतिवादी बनाया गया है. माने राजदीप जी का चैनल मामले में एक पार्टी बन चुका है. आरोप है कि एक डॉक्टर के कहने पर चैनल ने साजिशन स्टिंग किया और इन डॉक्टर साहब को फंसाया. कहा जा रहा है कि कई तरह की विभागीय जांच में डॉक्टर साहब बरी हो गए हैं. अब राजदीप जी ये पत्रकार खबर दे रहे थे या खबर गढ़ रहे थे? इनकी गलती क्या लाइव इंडिया के उस फर्जी स्टिंग से किसी भी तरह से भी कमतर है जिसमें एक शिक्षिका पर अपने स्कूल की बच्चियों से धंधा करवाने का आरोग लगाया गया था. इस मामले में भी पत्रकार के द्वारा उमा खुराना जी के एक शत्रु के साथ मिलकर स्टिंग करने की बात सामने आ चुकी है.


राजदीप जी ने खुराना जी के मसले पर राय रखी कि ऐसी गलती उन चैनलों पर हो रही है, जिसके संपादक काम नहीं करते। अपने हिन्दी चैनल के संपादक के बारे में उनकी क्या राय है? डॉक्टर साहब तो यही कह रहे हैं कि उन्हें फंसाया गया है. इन दोनों मामले को परे रखकर भी बात करें तो समाचार चैनलों के पत्रकारों पर हाल के दिनों में खबर बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने के आरोप लगे हैं. ऐसे पत्रकार हरेक मनोरंजन प्रधान समाचार चैनलों में मौजूद हैं. कभी ये पत्रकार किसी को गया में खुदकुशी के लिए उकसाते हैं तो कभी दूल्हे को लेकर उसकी दूसरी शादी करवाने चले जाते हैं. कभी पहली पत्नी को लेकर दूसरी शादी रचा रहे दूल्हे की मंडप पर पिटाई दिखाते हैं. पता नहीं, इन जांबाज और होनहार पत्रकारों को ऐसे मामलों की खबर कैसे लग जाती है. पुलिस नहीं पहुंचती लेकिन ये पहुंच जाते हैं. सोचना चाहिए कि ये पत्रकार कभी भी किसी आतंकी घटना या उसकी साजिश रचने की लाइव तस्वीरें क्यों नहीं जुटा पाते हैं.


जवाब साफ है कि इन्हें वहां बुलाया नहीं जाता. माने राजदीप जी की नजर में खुदकुशी की खबर का न्योता हो तो उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए और उसके मरने तक किसी को बताने की जरूरत महसूस नहीं करनी चाहिए. वर्ना दुनिया यह जान ही नहीं पाएगी कि सिस्टम से आजिज फलां ने फलां जगह पर जान दे दी. एक और बात, राजदीप जी कहते हैं कि हमें पार्टी नहीं बनना चाहिए। शायद उन्हें नहीं मालूम है लेकिन पूरा देश यह जानता है कि नरेंद्र मोदी, विहिप, बजरंग दल और शिवसेना को लेकर उनका नजरिया कहीं से भी वामपंथियों से कमजोर नहीं है. क्या आप यहां देश के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के सरोकार की वजह से पार्टी नहीं बनते हैं? और जब राजनीतिक मामलों में आप पार्टी बन सकते हैं तो एक निरीह की जान बचाने में पार्टी बनने से परहेज क्यों? देश में खबरों का इतना टोटा नहीं है कि किसी की खुदकुशी या किसी दूल्हे की पिटाई के बिना बुलेटिन तैयार न हो पाए.


अब बात नकवी साहब की...


नकवी साहब ने एनडीटीवी पर चली बहस में तीखे तेवर में कहा कि जिस कंटेंट कोड को लागू करने के लिए सरकार की तरफ से ब्रिटेन और बाकी देशों का उदाहरण दिया जा रहा है, भारत का लोकतंत्र वैसा नहीं है, इसलिए यहां रेगुलेटर को नहीं रखा जाना चाहिए।


मेरा कहना है कि....


बिल्कुल सही बात है कि भारतीय लोकतंत्र और उसके लोग ब्रिटेन जैसे नहीं हैं। लेकिन नकवी साहब को यह बताना चाहिए कि उस स्तर तक भारतीय लोकतंत्र कैसे पहुंच सकता है. नाग-नागिन, पुनर्जन्म, भूत दिखाकर वे क्या भारत के लोगों को उस ऊंचाई पर ले जा रहे हैं, जिस स्तर पर ब्रिटेन का लोकतंत्र है. उन्हें यह भी बताना चाहिए कि उनके चैनल ने लोगों को परिपक्वता के उस स्तर तक ले जाने के लिए क्या-क्या दिखाया है? क्रिकेट, कवरेज के भूखे कलाकार, नेताओं के भाषण, फर्जी चुनाव सर्वेक्षण के अलावा भारतीय लोकतंत्र को आप दे ही क्या रहे हैं, जो अपने बचाव में उसकी दुहाई देते रहते हैं. यह थोथी दलील भर है. जो चैनल राखी सावंत को पूरी तरह से स्क्रीन पर दिखाने के लिए अपने टिकर और स्क्रॉल हटा सकता है, वह और क्या-क्या कर सकता है या करता रहा है, इसके लिए किसी कोर्ट में बहस की जरूरत नहीं है।


मेरा तो यह मानना है कि नकवी जी और उनके जैसे बॉस चाहते हैं कि भारतीय लोगों की सोच-समझ का स्तर वहीं ठहरा रहे, जहां है. जहां तक हो सके उसे कुछ पीछे ले जाने की कोशिश की जाए. इसमें अर्थशास्त्र भी है. ऐसे कार्यक्रम तैयार करने पर काफी कम खर्च आता है. असली खबर दिखाने के लिए पत्रकार को फील्ड में जाना होगा, भटकना होगा और तब जाकर भी खबर बनेगी कि नहीं, गारंटी नहीं की जा सकती. लेकिन गल्पकथा पर बनी फिल्मों को देखने के आदी हो चुके भारतीय दर्शक गल्प समाचार को भी जरूर देखेंगे, यह टीआरपी से तय हो गया है.


एक कदम आगे बढ़ कर कहूं तो दर्शक स्क्रीन पर वह भी देखना चाहते हैं जिसे किसी भी परिवार में बाप-बेटा अलग-अलग कमरों में या एक-दूसरे से छुप कर देखता है. उदय शंकर जी पहले ही कह चुके हैं कि दर्शक जो देखेगा, हम दिखाएंगे. अगर कंटेंट कोड न बना तो सचमुच कोई न कोई यह दिखा ही देगा. छुपा-ढंक कर इंडिया टीवी ऐसे कार्यक्रम दिखाता ही रहा है.


और अंत में अनुराधा जी की बातें....


अनुराधा जी ने गौरव से कहा कि अगर टीवी चैनल होते तो आपातकाल नहीं लगाया जाता। चैनल वाले सरकार को बेनकाब कर देते।


मेरा कहना है कि....


अनुराधा जी की बातों से मैं सौ फीसदी सहमत हूं। अगर समाचार चैनल तभी आ गए होते तो न तो जेपी संपूर्ण क्रांति को जमीन पर उतार पाते और न ही आपातकाल की नौबत आती. तब चैनल वाले होते तो होता यह कि उस दशक में तेजी से उभरे अमिताभ बच्चन तभी महानायक बना दिए गए होते. क्रिकेट की दीवानगी अब तक सनक में बदल चुकी होती. और जिन बुरी आदतों से महानगरों के बच्चे आज गुजर रहे हैं, वे लक्षण गांव-गिरांव तक कब के पहुंच चुके होते. अभी तक तो उनकी कंपनी दूसरों के लिए कार्यक्रम बनाती थी.


अब वे खुद का चैनल ला रही हैं. इस लिहाज से उनकी सोच और नजरिए पर तो उनका चैनल शुरू होने से पहले कुछ नहीं कहा जा सकता. लेकिन, अगर उन्हें लगता है कि सबसे असरदार माध्यम टीवी की पत्रकारिता देश की सूरत संवार सकती है तो हम सबको उनके चैनल का भी इंतजार है. अनुराधा जी को भी मालूम है कि कालाहांडी भुखमरी से गुजर रहा है. उन गरीबों की जवाबदेही नवीन पटनायक जी के अलावा मनमोहन सिंह जी की भी है. यह उनके रनडाउन में होगा? मनमोहन जी की दो यात्राओं के दौरान विदर्भ में एक हजार से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं. क्या उनके चैनल पर ऐसे किसी किसान की आत्महत्या कहानी बनेगी? कोई इलाका पानी के लिए तरस रहा है, कहीं आज तक बिजली नहीं पहुंची है. कहीं अस्पतान नहीं है तो कहीं डॉक्टर जाते ही नहीं हैं. चुनौती आतंकवादियों के साथ-साथ नक्सलियों की भी है. खबर तो यह सब भी है.


मुझे इस बात का भी अंदाजा है कि ऐसे कार्यक्रम को पर्याप्त दर्शक नहीं मिलेंगे लेकिन टीआरपी की ज़ंग में वे यह साहस दिखा पाएंगी. यह सवाल इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि उनका मुकाबला गंभीर और साहसी एनडी़टीवी, आक्रामक आईबीएन7, मध्यमार्गी आजतक और मनोरंजन प्रधान जी न्यूज, स्टार न्यूज, इंडिया टीवी से होगा. ज़ंग और प्यार में अगर नाजायज चीजें भी जायज होने लगें तो इससे देश की ज्यादातर आबादी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि टीवी वाले आपातकाल में क्यों नहीं थे. आप उस वक्त नहीं थे, इसलिए क्रांति हो सकी. नहीं तो वह आंदोलन भी रंगीन, हंसी और अच्छी-अच्छी खबरों के बीच दब गया होता. आप सारे आज एकजुट होकर यही तो कर रहे हैं...

Thursday, August 2, 2007

क्रिकेटः देश के विकास की राह में रोड़ा

आप कहेंगे कि ये लड़का कुछ पगला गया सा लगता है. इस देश के क्रिकेटभक्त इस जुर्म के लिए मुझे लालकिले पर फांसी भी दे सकते हैं। फांसी पर झूलने के लिए मैं भी गला साफ करके तैयार हूं लेकिन मेरी अंतिम ख्वाहिश है कि मेरी बात सुन ली जाए. क्रिकेट के खिलाफ बात पूरी नहीं करने दी जाती, ये भी कोई कम सजा है.
देश की सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी में यूं ही बेरोजगारों की बड़ी फौज है। बचीखुची कामकाजू आबादी पर क्रिकेट का भूत किस कदर सवार है, इसका आलम उस दिन नजर आता है जब ऐन मौके पर दुनिया की सबसे बड़ी निकम्मी टीम साबित हो जाने वाली भारतीय टीम के मॉडल कहें या खिलाड़ी, किसी के खिलाफ मैदान में उतरते हैं.

देश के विकास में क्रिकेट का कितना योगदान है और कितनी संभावनाएं बची हुई हैं, ये शोध का विषय हो सकता है। लेकिन, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जिस दिन कोई क्रिकेट मैच हो, सरकारी दफ्तरों, यहां तक कि कॉरपोरेट ऑफिसों में भी काम की रफ्तार बेकार हो जाती है. इंदिरा आवास का आवेदन लेकर कोई बेघर बीडीओ साहब के दफ्तर पहुंचा होता है और साहब घर पर मैच का मजा उठा रहे होते हैं. किरानी, चपरासी और बड़ा बाबू भी रेडियो से चिपके नजर आते हैं. ऐसा ही नजारा दूसरे दफ्तरों में भी दिखता है. सड़क किनारे वैसी दुकानों पर मजमा ही लग जाता है, जहां कोई टीवी मैच दिखा रहा हो. देश के हर आदमी को मनोरंजन का अधिकार है लेकिन आम लोगों के काम को टालकर अगर मैच देखा जाए तो इस पर मुझे गहरी आपत्ति है. और, अगर आपको इस तरह के काम से परेशानी नहीं होती तो मेरी नजर में आप देशद्रोही जैसे ही हैं. मेरा तो यह भी मानना है कि पाकिस्तान जाली नोट भेजकर हमारी अर्थव्यवस्था को जितना नुकसान नहीं पहुंचा पाता है, उससे ज्यादा नुकसान श्रम दिवस की क्षति के लिहाज से क्रिकेट का मैच पहुंचाता है. ये अंग्रेज तो चले गए लेकिन कभी अपने गुलाम रहे भारत और हमारे पड़ोसी देशों (तब अविभाजित) को कुछ ऐसे रोग देकर गए जो उनसे आगे निकलने में हमारा रास्ता रोक लेते हैं. हम सोचते हैं कि सचिन के छक्के ब्रितानी सिपाहियों की गोलियों का जवाब है.

मेरी राय में क्रिकेट ऐसे लोगों का खेल है, जिनके पास पर्याप्त पैसा और उससे भी ज्यादा फालतू समय हो। भई, अब 100 ओवर का खेल देखने या खेलने के लिए दस घंटे का खाली समय भी तो चाहिए. और, भारत जैसे गरीब देश के कुछ करोड़ कामगारों को अगर एक ऐसे खेल को देखने, सुनने, खाने, पीने, गाने, नहाने... की लत लगती जा रही है तो यह आत्मघाती ही है. साल भर में ये खिलाड़ी कम से कम कुल मिलाकर दो महीना कहीं न कहीं खेलते रहते हैं. ये अलग बात है कि इनकी खबरें सालों भर छपती रहती है. मैच न हो तो खिलाड़ियों की निजी जिंदगी ही सही. इस लिहाज से सालाना तौर पर देखें तो करीब साठ दिन भारतीय कामगारों की कार्यक्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है. इनमें से कई करोड़ श्रमिक मैच के दिन अपने काम को न्यूनतम उत्पादन स्तर पर पहुंचा देते हैं. गरीबी से जूझ रहे एक देश के लिए श्रम दिवस का इससे बड़ा अपव्यय कुछ और नहीं हो सकता.

पता नहीं, अपने देश में फुटबॉल और हॉकी की ऐसी दुर्गति क्यों है? खेल उत्पादों का बाजार और मीडिया के अंदर प्रचार के पैसे का लोभ भी इसकी एक वजह नजर आती है। फुटबॉल या हॉकी खेलने के लिए कम से कम एक लंबा-चौड़ा मैदान चाहिए होता है. क्रिकेट तो गली-नुक्कड़ों के साथ ही साथ बंद या हड़ताल के दौरान किसी राजमार्ग पर भी खेला जा सकता है. तो देश में ऐसे खेल को लेकर सनक पैदा करने का क्या फायदा, जिसे खेलने वाले ही कम पड़ जाएं. क्रिकेट की सनक ने सड़क-गली-नुक्कड़ तक में दस-दस टीम बनवा दिया है. इतनी टीमों को खेलने के लिए लाखों बल्ले, गेंद, और भी न जानें किन-किन चीजों की जरूरत पड़ती है.

एक खेल में उपकरण और सामान का इतना बड़ा बाजार बन जाता है कि सिर्फ जर्सी, बूट, नेट और बॉल या स्टिक व गेंद वाले खेल फुटबॉल और हॉकी को भारत के बड़े बाजार ने बेगाना सा बना दिया है. खेल संघों पर काबिज नेताओं की करतूतें भी मजेदार ही है. मीडिया वाले बाजार के हाथों खेलते भी हैं और सीना ठोंककर कहते हैं कि लोग यही देखना चाहते हैं. क्रिकेट के व्यापारी दर्शकों को बांधे रखने के लिए रोज नए-नए प्रयोग कर रहे हैं. ट्वेंटी-ट्वेंटी नया अस्त्र है. यूरोप के खेलप्रेमियों का शौक उम्दा है. वे क्रिकेट देखते हैं लेकिन फुटबॉल या दूसरे खेलों की कीमत पर नहीं. विकसित और संपन्न देशों में भी फुटबॉल के खिलाड़ियों की कमाई या लोकप्रियता हमारे या उनके देश के किसी भी सफलतम क्रिकेट खिलाड़ी की जादू पर बहुत भारी है. कहा भी गया है, घर की मुर्गी दाल बराबर. हम भारतीय हिन्दी भाषा की तरह ही देश के अन्य खेलों का सत्यानाश कर रहे हैं. एक फिल्म है, चक दे इंडिया. हॉकी के भारतीय जीवन को इस फिल्म से कुछ सांसें और कुछ ताकत मिल जाए, तो यशराज फिल्मस के यश में भी वृद्धि हो. शाहरूख को मेरी शुभकामना है. सौ फूलों का खिलना देश के लिए, खिलाड़ियों के लिए और दर्शकों के लिए भी बेहतर होगा. रोजगार के मौके बढ़ेंगे. खेलप्रेमियों के सामने दर्शन का विकल्प भी...

Tuesday, July 24, 2007

लगता नहीं कि दिल्ली में कोई विपक्षी पार्टी भी है...

दिल्ली में भाजपा या बसपा जैसी विपक्षी पार्टियां आजकल क्या कर रहीं हैं, जब पूरी की पूरी दिल्ली बस की कमी को लेकर तंग-तंग है। यह सवाल अकेले मेरे मन में नहीं कौंध रहा. निम्नमध्यमवर्गीय परिवार का मुझ जैसा हर आदमी और मध्यमवर्गीय परिवार के सामान्य लोग भी इस सवाल का जवाब राजनाथ सिंह और हर्षवर्धन की आंखों में तलाशने की कोशिश कर रहे हैं. पर उनकी आंखें हैं कि उसमें पानी नहीं रह गया है. गरीब लोगों की चर्चा चुनाव के वक्त ही शोभा देती है नहीं तो फुटपाथ पर रातें गुजारने वालों को रौंदने वाली चमचमाती कारों पर चढ़ने वाले नेता, सोशलाइट और नवधनाढ्य मेरी जैसी राय रखने वालों को विकास विरोधी करार दे देंगे. और तो और कोर्ट मुझे भी बिन बुलाया मेहमान ठहरा देगा.

अभी तो नगर निगम के चुनाव में इसी आबादी ने भाजपा को जीत का तोहफा दिया था। लगता है, आरती मेहरा भी ये भूल गईं हैं. अगर उनके वोटरों के पास आने-जाने के साधनों की कमी पैदा हो गई है तो नाला-सड़क से ऊपर उठने की जरूरत उन्हें भी महसूस होनी चाहिए. वे बसें चला या चलवा नहीं सकती लेकिन राज्य सरकार पर बतौर राजनीतिक कार्यकर्ता दबाव तो बना ही सकती हैं. लेकिन जब उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं ने ही चुप्पी साध रखी है तो वे बेचारी खुद के लिए मुसीबत को क्यों न्योता दें. मेहरा को मेयर बने अभी तो जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए हैं.

दिल्ली की राजनीति में वामपंथियों की कोई खास पूछ नहीं है। फुर्सत के समय में इनके कार्यकर्ता पूंजीपतियों की, पूंजीपतियों के लिए और पूंजीपतियों के द्वारा चलाए जा रहे देश के प्रमुख दलों और उसके नेताओं के कारोबार-व्यापार पर नजर रखते हैं. इसमें ठेका-पट्टा से लेकर रियायत देने तक की गतिविधियां शामिल हैं. ऐसे ही एक कॉमरेड से मंगलवार को आईटीओ पर भेंट हो गई. कुछ दिन पहले तक मेरे ये मित्र दिल्ली में अपनी पार्टी की छात्र इकाई के नेता हुआ करते थे. छात्र राजनीति के दिनों में इस मित्र ने डीयू में पैसे की ताकत पर कांग्रेसी एनएसयूआई और भाजपाई विद्यार्थी परिषद के लहराते झंडे देखे हैं. वैसे तो हमदोनों के पास फटफटिया है लेकिन फिर भी वामपंथी आदतों से मजबूर होने की वजह से जल्दी ही हमारी बातचीत दिल्ली में बसों के संकट पर अटक गई. सर पर मंडरा रहे विधानसभा चुनाव और हाल ही में निगम चुनाव की करारी हार के बावजूद शीला दीक्षित की बेवकूफी ( वैकल्पिक उपायों पर गौर किए बगैर मीडिया के दबाव में ब्लूलाइन बसों को रातोंरात सुधारने के मकसद से उठाए गए कदमों की वजह से ) पर मैं हंस ही रहा था कि मेरे कॉमरेड मित्र ने भाजपा को मामले में लपेट लिया.

कॉमरेड मित्र बता रहे थे कि छोटी-छोटी बात पर सड़क जाम करने, पुतला जलाने और धरना-प्रदर्शन करने वाली भाजपा इस मसले पर दिल्ली की बेबस जनता के दुख में हमकदम होगी, इसमें शक है. मेरा स्वाभाविक सवाल था, क्यों? मित्र ने बताया, दिल्ली की ज्यादातर ब्लूलाइन बसों के मालिक भाजपा के नेता हैं, और कुछ नहीं तो कार्यकर्ता तो हैं ही. भाजपा के नेता अपनी बसों को चलवाने के लिए परेशान है क्योंकि सरकार बार-बार इन बसों को चलता करने की धमकी दे रही है. बस मालिक नेता और उनकी पार्टी सरकार के मिजाज को देखते हुए कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं दिख रही है. वे अपेक्षित चुप्पी और औपचारिक बयान के साथ जनता की ओर देख रहे हैं. दिल्ली के बस पीड़ित अभी दुधारी तलवार की तरह हैं. वो अपने कष्ट की सजा संकट पैदा करने वाली सरकार को देंगे या खामोश विपक्ष को, इस नतीजे का इंतजार मुझे जरूर रहेगा. कम से कम यह तो पता चल ही जाएगा कि दिल्ली में सिर्फ सरकार और नेता ही संवेदनहीन हैं या यहां रहने वाले लोग भी भोथरे हो चले हैं.

Saturday, July 21, 2007

एक और इंदिरा के सामने चरमरा गई अंतरात्मा...

महिला विरोधी न होते हुए भी मेरी दिली तमन्ना थी कि शेखावत ही राष्ट्रपति बनें. पता नहीं उनसे कब और क्यों प्यार हो गया. अमिताभ से लंबे, फरदीन से भी ज्यादा खूबसूरत, दमदार आवाज. किसी पर फिदा होने के लिए इतना काफी है. मेरा प्यार सहानुभूति का पात्र बन गया है. राजभवन से सीधे रायसीना हिल पर धावा बोलने के लिए जैसे ही सोनिया जी ने प्रतिभा पाटिल को हरी झंडी दिखाई, वो मेरी नजर में ललिता पवार हो गईं. अभी हाल तक वो मुझे आयशा टॉकिया जैसी खूबसूरत नजर आया करती थीं. सब गोबर हो गया।

अब तो राहुल भैया की अम्मां मुझे इंदिरा दादी से भी भारी होशियार लगने लगीं हैं. उम्मीद थी कि जैसे सोनिया जी ने त्याग किया था, भांति-भांति के आरोपों से परेशान होकर प्रतिभा जी खुद ही ना बोल देंगी. अपने जमाने में इंदिरा दादी कोई गाय लाकर पूरी पार्टी और सहयोगियों से जयजयकार करवा लेतीं, इसमें संदेह ही संदेह है. आंटी के सामने क्या करात, क्या बर्धन, क्या लालू और क्या पासवान, स्वदेशियों की अंतरात्मा भी चरमरा गईं. इंदिरा जी को भान होता कि ऐसे नेता मंत्री बनकर खामोश हो जाएंगे तो मुझे लगता है कि समाजवादियों के टूटने का सिलसिला जेपी के आंदोलन के दौरान ही शुरू हो गया होता।

जो मित्र नजदीक से जानते हैं, वो मानते हैं कि मैं भी भाजपा को गाली देने और वामपंथियों की तारीफ करने के लिए पैदा हुआ हूं. पत्रकारिता में आने का कारण भी वे यही मानते हैं. आज भाजपा की बात नहीं करूंगा क्योंकि इस पार्टी को लेकर मेरे नजरिया में कोई बदलाव नहीं आया है। कभी कभार संसद सत्र के दौरान शौकिया ही सही, टीवी पर सीधा प्रसारण देखना मुझे भाता है. इसलिए नहीं कि मैं भी वहां जाना चाहता हूं बल्कि इसलिए कि मैं अपने राज्य के कुछ नेताओं को वहां तलाशता हूं कि वे सत्र में आते भी हैं या नहीं. आ गए हों तो कुछ बोलते हैं या मेज बजाकर ही चले आते हैं।

टीवी पर देखते ही देखते शेखावत जी के लिए मन में बहुत सम्मान आ गया. शेखावत जी ने सदन को जिस तरह से चलाया, वे सोमनाथ दा से काफी आगे निकल गए. ये बात है कि शेखावत जी के सदन में ज्यादा सज्जन लोग होते हैं जबकि सोमनाथ दा को बहस के अलावा झगड़े भी सुलझाने होते हैं. फिर भी उच्च सदन में बगैर ज्यादा विवाद में फंसे पार्टी के लठैतों को काबू में रखने की जो समझ-बूझ उन्होंने दिखाई, उसमें भाजपा की बदबू दूर तक नहीं आती. सोमनाथ दा तो हर बार भाजपा की चाल में फंस ही गए. मुसीबत में सरकार को वे क्या निकालते, सरकार को उनका संकटमोचक बनना पड़ा.शेखावत जी ने अपनी पार्टी के लिए किसी को नाराज नहीं किया।

खैर, अब सोनिया जी की खास भरोसेमंद देश की पहली महिला राष्ट्रपति चुन ली गईं हैं. वे इसे देश की महिलाओं का सम्मान बता रहीं हैं. महिला आरक्षण बिल लटकाए बैठी सरकार की मार्गदर्शक सोनिया जी की पसंद पर वामपंथी हां भर देते तो शिवराज पाटिल इस पद पर जाते. शिवराज जी के बाद भी कई और नाम कॉमरेडों को पसंद नहीं आए तो हारकर प्रतिभा जी को आगे लाया गया. अब, ये तो सोनिया जी ही बता सकती हैं कि देश की महिलाओं का सम्मान क्या उनकी प्राथमिकता में सबसे नीचे और अंतिम विकल्प है. इतना तरस खाकर देश की महिलाओं को सम्मान देने की कोई जरूरत तो थी नहीं. सोनिया जी, यह मेहरबानी क्यों...?

Tuesday, July 17, 2007

किलरलाइन...दिल्ली की जीवनरेखा

दिल्ली में ठीकठाक रहने के लिए ये भी थोड़े कम है कि कोई ब्लूलाइन बसों के नीचे आने से बचा हुआ है, है कि नहीं...

हमलोगों ने आम लोगों की जीवनरेखा को सिफॆ इसलिए दैत्य,जानलेवा और खूनी बना दिया है क्योंकि यह ऐसी खबर है जो लंबी खींची जा सकती है और टीवी वालों की किस्मत देखिए,चालीस लाख वाहनों वाले इस शहर में कम से कम एक-दो आदमी तो उनके लिए हर रोज शहीद होने के लिए तैयार हैं ही. उन्हें सड़क पर दौड़ लगाने से पहले यह देखने की फुसॆत कहां है कि इस भागमभाग में उनकी अंतिम यात्रा का बंदोबस्त तो नहीं हो जाएगा.बेचारी ब्लूलाइन॥

अपने यहां प्रचलन है, जिसका नुकसान ज्यादा, वो बेचारा और कम क्षति उठाने वाला हमेशा ही नाहगार होता है. साईकिल मोटरसाईकिल में भिड़ा दें तो गलत बाईक वाला होता है. बाईक वाला कार से जा टकराए तो अंधा कार वाला ही कहलाता है. कार और ट्रक आमने-सामने हो जाएं तो ट्रक वाला पीटा जाता है.घर-परिवार के लिए बस-ट्रक चलाने वाला कोई खून करने तो सड़क पर आता नहीं लेकिन कोई आदमी मरने के लिए ही अड़ा हो तो कोई उसे कब तक बचा सकता है.