Thursday, August 2, 2007

क्रिकेटः देश के विकास की राह में रोड़ा

आप कहेंगे कि ये लड़का कुछ पगला गया सा लगता है. इस देश के क्रिकेटभक्त इस जुर्म के लिए मुझे लालकिले पर फांसी भी दे सकते हैं। फांसी पर झूलने के लिए मैं भी गला साफ करके तैयार हूं लेकिन मेरी अंतिम ख्वाहिश है कि मेरी बात सुन ली जाए. क्रिकेट के खिलाफ बात पूरी नहीं करने दी जाती, ये भी कोई कम सजा है.
देश की सौ करोड़ से ज्यादा की आबादी में यूं ही बेरोजगारों की बड़ी फौज है। बचीखुची कामकाजू आबादी पर क्रिकेट का भूत किस कदर सवार है, इसका आलम उस दिन नजर आता है जब ऐन मौके पर दुनिया की सबसे बड़ी निकम्मी टीम साबित हो जाने वाली भारतीय टीम के मॉडल कहें या खिलाड़ी, किसी के खिलाफ मैदान में उतरते हैं.

देश के विकास में क्रिकेट का कितना योगदान है और कितनी संभावनाएं बची हुई हैं, ये शोध का विषय हो सकता है। लेकिन, इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि जिस दिन कोई क्रिकेट मैच हो, सरकारी दफ्तरों, यहां तक कि कॉरपोरेट ऑफिसों में भी काम की रफ्तार बेकार हो जाती है. इंदिरा आवास का आवेदन लेकर कोई बेघर बीडीओ साहब के दफ्तर पहुंचा होता है और साहब घर पर मैच का मजा उठा रहे होते हैं. किरानी, चपरासी और बड़ा बाबू भी रेडियो से चिपके नजर आते हैं. ऐसा ही नजारा दूसरे दफ्तरों में भी दिखता है. सड़क किनारे वैसी दुकानों पर मजमा ही लग जाता है, जहां कोई टीवी मैच दिखा रहा हो. देश के हर आदमी को मनोरंजन का अधिकार है लेकिन आम लोगों के काम को टालकर अगर मैच देखा जाए तो इस पर मुझे गहरी आपत्ति है. और, अगर आपको इस तरह के काम से परेशानी नहीं होती तो मेरी नजर में आप देशद्रोही जैसे ही हैं. मेरा तो यह भी मानना है कि पाकिस्तान जाली नोट भेजकर हमारी अर्थव्यवस्था को जितना नुकसान नहीं पहुंचा पाता है, उससे ज्यादा नुकसान श्रम दिवस की क्षति के लिहाज से क्रिकेट का मैच पहुंचाता है. ये अंग्रेज तो चले गए लेकिन कभी अपने गुलाम रहे भारत और हमारे पड़ोसी देशों (तब अविभाजित) को कुछ ऐसे रोग देकर गए जो उनसे आगे निकलने में हमारा रास्ता रोक लेते हैं. हम सोचते हैं कि सचिन के छक्के ब्रितानी सिपाहियों की गोलियों का जवाब है.

मेरी राय में क्रिकेट ऐसे लोगों का खेल है, जिनके पास पर्याप्त पैसा और उससे भी ज्यादा फालतू समय हो। भई, अब 100 ओवर का खेल देखने या खेलने के लिए दस घंटे का खाली समय भी तो चाहिए. और, भारत जैसे गरीब देश के कुछ करोड़ कामगारों को अगर एक ऐसे खेल को देखने, सुनने, खाने, पीने, गाने, नहाने... की लत लगती जा रही है तो यह आत्मघाती ही है. साल भर में ये खिलाड़ी कम से कम कुल मिलाकर दो महीना कहीं न कहीं खेलते रहते हैं. ये अलग बात है कि इनकी खबरें सालों भर छपती रहती है. मैच न हो तो खिलाड़ियों की निजी जिंदगी ही सही. इस लिहाज से सालाना तौर पर देखें तो करीब साठ दिन भारतीय कामगारों की कार्यक्षमता का पूरा उपयोग नहीं हो पाता है. इनमें से कई करोड़ श्रमिक मैच के दिन अपने काम को न्यूनतम उत्पादन स्तर पर पहुंचा देते हैं. गरीबी से जूझ रहे एक देश के लिए श्रम दिवस का इससे बड़ा अपव्यय कुछ और नहीं हो सकता.

पता नहीं, अपने देश में फुटबॉल और हॉकी की ऐसी दुर्गति क्यों है? खेल उत्पादों का बाजार और मीडिया के अंदर प्रचार के पैसे का लोभ भी इसकी एक वजह नजर आती है। फुटबॉल या हॉकी खेलने के लिए कम से कम एक लंबा-चौड़ा मैदान चाहिए होता है. क्रिकेट तो गली-नुक्कड़ों के साथ ही साथ बंद या हड़ताल के दौरान किसी राजमार्ग पर भी खेला जा सकता है. तो देश में ऐसे खेल को लेकर सनक पैदा करने का क्या फायदा, जिसे खेलने वाले ही कम पड़ जाएं. क्रिकेट की सनक ने सड़क-गली-नुक्कड़ तक में दस-दस टीम बनवा दिया है. इतनी टीमों को खेलने के लिए लाखों बल्ले, गेंद, और भी न जानें किन-किन चीजों की जरूरत पड़ती है.

एक खेल में उपकरण और सामान का इतना बड़ा बाजार बन जाता है कि सिर्फ जर्सी, बूट, नेट और बॉल या स्टिक व गेंद वाले खेल फुटबॉल और हॉकी को भारत के बड़े बाजार ने बेगाना सा बना दिया है. खेल संघों पर काबिज नेताओं की करतूतें भी मजेदार ही है. मीडिया वाले बाजार के हाथों खेलते भी हैं और सीना ठोंककर कहते हैं कि लोग यही देखना चाहते हैं. क्रिकेट के व्यापारी दर्शकों को बांधे रखने के लिए रोज नए-नए प्रयोग कर रहे हैं. ट्वेंटी-ट्वेंटी नया अस्त्र है. यूरोप के खेलप्रेमियों का शौक उम्दा है. वे क्रिकेट देखते हैं लेकिन फुटबॉल या दूसरे खेलों की कीमत पर नहीं. विकसित और संपन्न देशों में भी फुटबॉल के खिलाड़ियों की कमाई या लोकप्रियता हमारे या उनके देश के किसी भी सफलतम क्रिकेट खिलाड़ी की जादू पर बहुत भारी है. कहा भी गया है, घर की मुर्गी दाल बराबर. हम भारतीय हिन्दी भाषा की तरह ही देश के अन्य खेलों का सत्यानाश कर रहे हैं. एक फिल्म है, चक दे इंडिया. हॉकी के भारतीय जीवन को इस फिल्म से कुछ सांसें और कुछ ताकत मिल जाए, तो यशराज फिल्मस के यश में भी वृद्धि हो. शाहरूख को मेरी शुभकामना है. सौ फूलों का खिलना देश के लिए, खिलाड़ियों के लिए और दर्शकों के लिए भी बेहतर होगा. रोजगार के मौके बढ़ेंगे. खेलप्रेमियों के सामने दर्शन का विकल्प भी...

6 comments:

Shastri JC Philip said...

एक दम सही विश्लेषण किया है आप ने. लाट साहबों के इस विदेशी खेल को हिदुस्तान को बहिष्कृत करना जरूरी है -- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info

विष्णु बैरागी said...

एकदम सही कहा आपने । अंग्रेज चले गए, क्रिकेट छोड गए । क्रिकेट इस देश में लगा हुआ घुन है ।

Shastri JC Philip said...

आपकी पोस्टिंग में बहुत समय का अंतराल है. सफल ब्लागिंग के लिये यह जरूरी है कि आप हफ्ते में कम से कम 3 पोस्टिंग करें. अधिकतर सफल चिट्ठाकार हफ्ते में 5 से अधिक पोस्ट करते हैं. किसी भी तरह की मदद चाहिये तो मुझ से संपर्क करे webmaster@sararhi.info -- शास्त्री जे सी फिलिप

मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!

IIMC Alumni Association said...

http://www.left-liberal.blogspot.com/

Unknown said...
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Unknown said...

आप किस युग के हैं, निर्धारित करना जरा मुश्किल है। जरा अपडेट रहा कीजिए। ट्वेंटी-20 आ चुका है जो आपके कई सारे सवालों का जवाब है। कम समय, तेज रफ्तार, पूरा मनोरंजन, एकदम हॉकी और फुटबॉल स्टाइल। अब क्रिकेट कैसे लोगों का खेल है या कैसे लोगों को इसे खेलना चाहिए, ये दो ऐसे सवाल हैं जिन पर आपने पूरी रोशनी नहीं डाली। जितना भारत मैंने घूमा है, तकरीबन 10 राज्य, उनमें तो मुझे गली गूचड़ से लेकर आलीशान स्टेडियम तक लोग इसी खेल से जुड़े दिखते हैं, क्योंकि 100 रुपए के बल्ले और बीस रुपए की गेंद में काम चल जाता है।
रही बात देश के विकास की, तो उसके लिए क्रिकेट से कई गुना बड़े जिम्मेदार कारक आपके चारों ओर ही मौजूद हैं, निगाह दौड़ाएंगे, तो खुद ब खुद पा जाएंगे।
आदरणीय, क्रिकेट तो वो खेल है जो हिंदुस्तान की रगों में दौड़ता है। जीत हार को एक किनारे रखकर देखें, तो खेल का सच्चे मायनों में मजा उठा पाएंगे। बल्लेबाज के बल्ले से टकाक की आवाज से निकली बाउंड्री की ओर जाती गेंद, विकेटों के बिखरने की आवाज, वो रोमांच पैदा करते हैं कि आप काम की थकान भूल जाएं। खेल हमें जोड़ने का जरिया होते हैं, रही बात हॉकी की क्रिकेट से तुलना करने की, तो मानें या नहीं, हॉकी और तमाम और कथित खेलों को क्रिकेट से सीखने की जरूरत है। कैसे क्रिकेट ने खुद को बेचा, और कहां हॉकी बोली लगाने से चूक गया। कहां फुटबॉल बस गिने चुने राज्यों में सिमटा रह गया..
खेल अंग्रेजों, हिंदुओं और मुसलमानों के नहीं होते, हमारी आपकी मानसिकता उन्हें ऐसा बनाती है। शतरंज भारत की पैदाइश है, आप बताइए, क्या रूस से बेहतर खिलाड़ी हम पैदा कर पाए हैं। नहीं ना। तो खेलों के पीछे घुन की तरह लगी राजनीति को उससे दूर करने की है, ना कि क्रिकेट या फिर किसी और खेल को निशाना बनाने की।
शुक्रिया...