Tuesday, July 24, 2007

लगता नहीं कि दिल्ली में कोई विपक्षी पार्टी भी है...

दिल्ली में भाजपा या बसपा जैसी विपक्षी पार्टियां आजकल क्या कर रहीं हैं, जब पूरी की पूरी दिल्ली बस की कमी को लेकर तंग-तंग है। यह सवाल अकेले मेरे मन में नहीं कौंध रहा. निम्नमध्यमवर्गीय परिवार का मुझ जैसा हर आदमी और मध्यमवर्गीय परिवार के सामान्य लोग भी इस सवाल का जवाब राजनाथ सिंह और हर्षवर्धन की आंखों में तलाशने की कोशिश कर रहे हैं. पर उनकी आंखें हैं कि उसमें पानी नहीं रह गया है. गरीब लोगों की चर्चा चुनाव के वक्त ही शोभा देती है नहीं तो फुटपाथ पर रातें गुजारने वालों को रौंदने वाली चमचमाती कारों पर चढ़ने वाले नेता, सोशलाइट और नवधनाढ्य मेरी जैसी राय रखने वालों को विकास विरोधी करार दे देंगे. और तो और कोर्ट मुझे भी बिन बुलाया मेहमान ठहरा देगा.

अभी तो नगर निगम के चुनाव में इसी आबादी ने भाजपा को जीत का तोहफा दिया था। लगता है, आरती मेहरा भी ये भूल गईं हैं. अगर उनके वोटरों के पास आने-जाने के साधनों की कमी पैदा हो गई है तो नाला-सड़क से ऊपर उठने की जरूरत उन्हें भी महसूस होनी चाहिए. वे बसें चला या चलवा नहीं सकती लेकिन राज्य सरकार पर बतौर राजनीतिक कार्यकर्ता दबाव तो बना ही सकती हैं. लेकिन जब उनकी पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं ने ही चुप्पी साध रखी है तो वे बेचारी खुद के लिए मुसीबत को क्यों न्योता दें. मेहरा को मेयर बने अभी तो जुम्मा-जुम्मा चार दिन ही हुए हैं.

दिल्ली की राजनीति में वामपंथियों की कोई खास पूछ नहीं है। फुर्सत के समय में इनके कार्यकर्ता पूंजीपतियों की, पूंजीपतियों के लिए और पूंजीपतियों के द्वारा चलाए जा रहे देश के प्रमुख दलों और उसके नेताओं के कारोबार-व्यापार पर नजर रखते हैं. इसमें ठेका-पट्टा से लेकर रियायत देने तक की गतिविधियां शामिल हैं. ऐसे ही एक कॉमरेड से मंगलवार को आईटीओ पर भेंट हो गई. कुछ दिन पहले तक मेरे ये मित्र दिल्ली में अपनी पार्टी की छात्र इकाई के नेता हुआ करते थे. छात्र राजनीति के दिनों में इस मित्र ने डीयू में पैसे की ताकत पर कांग्रेसी एनएसयूआई और भाजपाई विद्यार्थी परिषद के लहराते झंडे देखे हैं. वैसे तो हमदोनों के पास फटफटिया है लेकिन फिर भी वामपंथी आदतों से मजबूर होने की वजह से जल्दी ही हमारी बातचीत दिल्ली में बसों के संकट पर अटक गई. सर पर मंडरा रहे विधानसभा चुनाव और हाल ही में निगम चुनाव की करारी हार के बावजूद शीला दीक्षित की बेवकूफी ( वैकल्पिक उपायों पर गौर किए बगैर मीडिया के दबाव में ब्लूलाइन बसों को रातोंरात सुधारने के मकसद से उठाए गए कदमों की वजह से ) पर मैं हंस ही रहा था कि मेरे कॉमरेड मित्र ने भाजपा को मामले में लपेट लिया.

कॉमरेड मित्र बता रहे थे कि छोटी-छोटी बात पर सड़क जाम करने, पुतला जलाने और धरना-प्रदर्शन करने वाली भाजपा इस मसले पर दिल्ली की बेबस जनता के दुख में हमकदम होगी, इसमें शक है. मेरा स्वाभाविक सवाल था, क्यों? मित्र ने बताया, दिल्ली की ज्यादातर ब्लूलाइन बसों के मालिक भाजपा के नेता हैं, और कुछ नहीं तो कार्यकर्ता तो हैं ही. भाजपा के नेता अपनी बसों को चलवाने के लिए परेशान है क्योंकि सरकार बार-बार इन बसों को चलता करने की धमकी दे रही है. बस मालिक नेता और उनकी पार्टी सरकार के मिजाज को देखते हुए कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं दिख रही है. वे अपेक्षित चुप्पी और औपचारिक बयान के साथ जनता की ओर देख रहे हैं. दिल्ली के बस पीड़ित अभी दुधारी तलवार की तरह हैं. वो अपने कष्ट की सजा संकट पैदा करने वाली सरकार को देंगे या खामोश विपक्ष को, इस नतीजे का इंतजार मुझे जरूर रहेगा. कम से कम यह तो पता चल ही जाएगा कि दिल्ली में सिर्फ सरकार और नेता ही संवेदनहीन हैं या यहां रहने वाले लोग भी भोथरे हो चले हैं.

No comments: