Saturday, May 17, 2008

बॉलीवुड के कमीशन एजेंट हैं ये समाचार चैनल...

पता नहीं हर सप्ताह फ्लॉप और बकवास फिल्में देखने के लिए लोगों को उकसाने के एवज में ये सारे समाचार चैनल कितने पैसे लेते हैं. सोमवार से जो ये गाना गाना शुरू करते हैं तो शुक्रवार को फिल्म के रिलीज होने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ते हैं.

 

इन चैनलों के चक्कर में मैंने इतनी सारी सिरदर्द फिल्में देख ली हैं कि हजारों रुपए की बद्दुआ उनका पीछा नहीं छोड़ेगी. पिछले शनिवार को टशन देखने चला गया था, टेंशन हो गया. जब आदित्य चोपड़ा के निर्देशक को तंबाकू खाने का तरीका नहीं मालूम था तो अनिल कपूर को तंबाकू खिलाने की जरूरत ही क्या थी?

 

और पुराने जमाने में सफल फिल्में बनाने वाली भी ऐसी चाट और सिरखाऊ फिल्में पेश करे हैं कि अब नाम पर से भरोसा ही उठ गया है. यश चोपड़ा साहब की झूम बराबर झूम, नील एंड निक्की हो या यश जौहर की कंपनी की कभी अलविदा न कहना.

 

अमिताभ बच्चन का फिल्म में होना कहीं फिल्म के हिट होने की गारंटी है क्या.

 

खैर, बॉलीवुड के इस दोगलेपन का नतीजा यह निकला है कि अब कोई फिल्म दो सप्ताह से ज्यादा नहीं टिक पाती. दर्शक दो दिनों में फिल्मों का हिसाब कर लेते हैं. वो तो भला हो मल्टीप्लेक्सों का कि कुछ हजार लोग भी फिल्म देख लें तो फिल्में घाटे से उबर जाती हैं.

 

दूसरा असर यह हुआ है कि पश्चिमी रंग-ढंग में अंग्रेजी-हिंदी मिक्स करके गाना और फिल्म बनाने के चक्कर में अंग्रेजीदाँ लोगों ने इतने नर्क बोए कि अब बिहार, यूपी जैसे बड़े हिंदी बाजार में अधिकांश सिनेमा घरों में भोजपुरी फिल्में चलती हैं.

 

कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि देश के तमाम बड़े-बड़े पत्रकारों ने जिस तरह से अंग्रेजी में लिखकर हिंदी अखबारों का पन्ना भड़ा है और अब भी भड़ रहे हैं, ये फिल्में भी उसी तरह हिंदी के बाजार से अंग्रेजी का घर भर रही हैं.

 

बेसिर-पैर की कहानी, पारिवारिक मूल्यों को तोड़ती कहानी, युवाओं को ललचाती कहानी...गांवों को नहीं लुभा पा रही हैं. गाँव के लोगों की नजर में पथभ्रष्ट और चियरलीडर्स को देखकर फूले जा रहे मध्यवर्ग को साधने के चक्कर में साधारण लोग क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों को हिट करा रहे हैं.

 

जबकि कोई भी भोजपुरी फिल्म बिहार-यूपी में पाँच सप्ताह से ज्यादा चल जाती है क्योंकि उसे देखकर लोगों को लगता है कि ये कुछ आसपास की कहानी है.

 

बॉलीवुड की फिल्में जब मैंने देखनी शुरू की थी तब हिट होने के लिए फिल्म का कम से कम पचास दिन चलना जरूरी माना जाता था. सौ दिन चले बिना सुपरहिट होना संभव ही नहीं था.

 

लेकिन ये चैनल वाले हर सप्ताह बताते हैं कि कैटरीना कैफ की ये, सलमान खान की वो, शाहरुख की फलाँ, अमिताभ की ढेकानाँ फिल्म सुपरहिट रही. काहे कि हिट भैया. तुमने गाया नहीं होता तो औकात पता चल जाती. कमीशन खाए चैनलों के प्रचार से दिग्भ्रमित लोग सिनेमा हॉल से जब तक लौटते हैं, फिल्म हिट हो जाती है.

 

ये हिंदी की खाने वाले आखिर गा किसकी रहे हैं. हिंदी फिल्मों के अभिनेता, अभिनेत्री, निर्देशक, सब के सब अपनी फिल्मों के प्रचार में, भले ही हिंदी चैनल पर क्यों न हों, अंग्रेजी बोलकर कनाडा, ब्रिटेन और अमेरिका के दर्शकों को लुभा रहे हैं. कुछ जादू दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों पर भी चल जाता है लेकिन गांव और छोटे शहर धीरे-धीरे इनकी पकड़ से बाहर निकल रहे हैं.

 

सब कुछ ऐसा ही चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी बोलने, सुनने और हिंदी को जीने वाली बड़ी आबादी बॉलीवुड फिल्मों को भी हॉलीवुड की तरह देखने लगेगी.

 

गांवों में हॉलीवुड की फिल्मों को जिस रूप में देखा जाता है, वो तो आप समझते ही होंगे...

1 comment:

सागर नाहर said...

शायद चैनल वाले किसी फिल्म को पिटवाने का भी ठेका लेते है। तभी सारे चैनलों ने ओम शान्ति ओम देखकर दर्शकों में से उन दर्शकों को ही बार बार टीवी पर दिखलाया जो फिल्म की तारीफ कर रहे थे। दूसरी ओर सांवरिया फिल्म के उन्ही दर्शकों को दिखलाया जो दर्शक फिल्म को कोस रहे थे।
शायद यह भी शाहरूख से पैसे लेकर किया गया एक नाटक ही था, बेचारे भंसाली भाई शाहरूख की चाल में फंस कर अपनी फिल्म पिटवा बैठे।